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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (पुम:) पुम् इस (पदस्य) पद को (अम्परे) अम्-प्रत्याहार परक (खयि) खय् वर्ण परे होने पर (रु:) रु-आदेश होता है।
_उदा०-पुंस्कामा, पुंस्कामा । पुरुष की कामना रखनेवाली नारी। पुंस्पुत्रः, पुंसुत्रः। पुरुष के नाम से प्रसिद्ध पुत्र। पुंस्फलम्, पुंस्फलम् । पुरुषभाव का फल। पुंश्चली, पुंश्चली। कुलटा नारी (चालू)।
सिद्धि-पुंस्कामा। पुम्+कामा। पुरु+कामा। पु+कामा। (:+कामा। पुंस्+कामा। पुंस्कामा।
___ यहां 'पुम्' और 'कामा' शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से अम्परक (आ) खय् वर्ण (का) वर्ण परे होने पर पुम्' के मकार को 'ह' आदेश होता है। खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८।३।१५) से रु के रेफ को खलक्षण विसर्जनीय और वा शरि' (८।३।३६) में व्यवस्थित विभाषा मानकर विसर्जनीय को सकारादेश ही होता है। 'कुप्वो: "क "पौ च' (८।३।३७) से प्राप्त : जिह्वामूलीय आदेश नहीं होता है। 'रु' से पूर्ववर्ती वर्ण को पूर्ववत् अनुनासिक आदेश होता है। अनुस्वार पक्ष में-पुंस्कामा । ऐसे ही-(स्पुत्र: आदि।
वा०- 'अयोगवाहानामट्सु' (हयवरट) इस भाष्यवार्तिक से अयोगवाह (अँ) को अचों में परिगणित करके 'अनचि च' (८४१४६) से सकार को द्वित्व होता है-ऍस्स्कामा। और पूर्वोक्त वार्तिक से ही अयोगवाह को हल् में परिगणित करके झरो झरि सवर्णे (८।४।६४) से सकार का लोप होता है-(स्कामा । ऐसे ही-पुंस्स्पुत्रः, (स्पुत्र: आदि। रु-आदेश:
(७) नश्छव्यप्रशान्।७। प०वि०-न: ६।१ छवि ७१ अप्रशान् १।१ (षष्ठ्यर्थे) । स०-न प्रशानिति अप्रशान् (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-पदस्य, संहितायाम्, रु:, अम्परे इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायाम् अप्रशान् न: पदस्याम्परे छवि रुः ।
अर्थ:-संहितायां विषयेऽप्रशान्-प्रशान्वर्जितस्य नकारान्तस्य पदस्याम्परके छवि परतो रुरादेशो भवति।
उदा०-भवाँश्छादयति, भवांश्छादयति । भवाँश्चिनोति, भवांश्चिनोति। भवाँष्टीकते, भवांष्टीकते। भवाँस्तरति, भवांस्तरति ।
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