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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः सिद्धि-समक्न: । सम्+अञ्च्+क्त। सम्+अञ्च्+त। सम्+अच्+त । सम्+अक्+त। सम्+अक्+ना समक्न+सु । समक्नः ।
यहां सम्-उपसर्गपूर्वक 'अञ्च गतिपूजनयोः' (भ्वा०प०) धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से 'क्त' प्रत्यय है। 'अनिदतां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से अनुनासिक (न्) का लोप होता है। चो: कुः' (८।२।३०) से चकार को कवर्ग गकारादेश है। इस सूत्र से 'अञ्च्' धातु से परवर्ती निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है। नि-उपसर्ग से-न्यक्नः । उदितो वा' (७।२।५६) से क्त्वा प्रत्यय को विभाषा इट् कहा है, अत: यस्य विभाषा' (७।२।१५) के नियम से निष्ठा में इडागम का प्रतिषेध होता है। न-आदेश:
(८) दिवोऽविजिगीषायाम्।४६ | प०वि०-दिव: ५।१ अविजिगीषायाम् ७१।
सo-विजेतुमिच्छा विजिगीषा। न विजिगीषेति अविजिगीषा, तस्याम्अविजिगीषायाम् (नञ्तत्पुरुषः)।
अनु०-निष्ठात:, न, धातोरिति चानुवर्तते । अन्वय:-अविजिगीषायां दिवो धातोर्निष्ठातो नः ।
अर्थ:-विजिगीषार्थवर्जिताद् दिवो धातो: परस्य निष्ठातकारस्य स्थाने नकारादेशो भवति।
उदा०-(दिव्) आद्यून: औदरिक: । परिवून: क्षीणः । अविजिगीषायामिति किम् ? द्यूतं वर्तते। द्यूतक्रीडायां विजिगीषयाऽक्षपातनादिकं क्रियते।
आर्यभाषा: अर्थ-(अविजिगीषायाम) विजिगीषा विजय की इच्छा से भिन्न अर्थ में (दिव:) दिव् (धातो:) धातु से परवर्ती (निष्ठात:) निष्ठा के तकार को (न:) नकारादेश होता है।
उदा०-(दिव्) आद्यूनः । औदरिक, पेटू । परियूनः । क्षीण (निर्बल)।
सिद्धि-आद्यून: । आ+दिव्+क्त। आ+दिव+त। आ+दि ऊ+त। आ+दि ऊ+त। धू+न। द्यून+सु । द्यूनः।
यहां दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' (दि०प०) धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से 'क्त' प्रत्यय है। छवो: शुडनुनासिके च' (६।४।१९) से दिव' के वकार को 'ऊ' आदेश और 'इको यणचि' (६।११७६) से यणादेश है। इस सूत्र से विजिगीषा अर्थ से अन्यत्र 'दिव्' धातु से परवर्ती निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है। विजिगीषा अर्थ में-द्यूतं वर्तते । द्यूतक्रीडा में विजय की इच्छा से पासे डाले जाते हैं।
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