________________
५२८
पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
से
धातु को द्वित्व, 'हस्व:' (७/४/५९) से अभ्यास को ह्रस्व, 'अभ्यासे चर्च (CI४ 1५४) से अभ्यास के धकार को जश् दकारादेश और 'श्नाभ्यस्तयोरात:' ( ६ |४|११२) से आकार का लोप होता है। इस सूत्र से तकार परे होने पर झषन्त 'दध्' धातु के बश् (द्) के स्थान में भष् (ध) आदेश होता है।
यहां पाणिनि मुनि के वचनसामर्थ्य से 'अचः परस्मिन् पूर्वविधौ (१1१1419) से आकार लोप स्थानिवत् नहीं होता है और भष् आदेश करते समय 'अभ्यासे चर्च . (८०४ /५४) से विहित जश् आदेश असिद्ध नहीं होता है । 'खरि च' (८०४ 1५५) से धातु-धकार को चर् तकारादेश है।
ऐसे ही- 'थस्' प्रत्यय में- धत्थः । थास् (से) प्रत्यय में- धत्स्व । लोट् लकार में 'थास: से' (३/४/८०) से 'थास्' के स्थान में 'से' आदेश और 'स्वाभ्यां वामौ (३/४/९१) से एकार को वकारादेश है। ध्वम् प्रत्यय में- धध्वम् ।
जश्-आदेश:
(२२) झलां जशोऽन्ते । ३६ ।
प०वि०-झलाम् ६ । ३ जश: १ । ३ अन्ते ७ ११ ।
अनु०-पदस्येत्यनुवर्तते ।
अन्वयः - पदस्यान्ते झलां जशः ।
अर्थ:- पदस्यान्ते वर्तमानानां झलां स्थाने जश आदेशा भवन्ति । उदा०-जश्=ज, ब, ग, ड, द । (ज) अच्+अन्त:=अजन्तः । (ब) त्रिष्टुप् + अ = त्रिष्टुबत्र । (ग) वाक् + अ = वागत्र। (ड) श्वलिट्+अत्र= श्वलिडत्र। (द) अग्निचित्+अत्र=अग्निचिदत्र ।
आर्यभाषा: अर्थ - (पदस्य) पद के (अन्ते) अन्त में विद्यमान (झलाम्) झल वर्णों के स्थान में (जश्) जश् वर्ण आदेश होते हैं।
उदा० - जश्= ज, ब, ग, ड, द । (ज) अच् + अन्तः = अजन्तः । अच् जिसके अन्त में है । (ब) त्रिष्टुप् +अत्र = त्रिष्टुबत्र । इस मन्त्र में त्रिष्टुप् छन्द है । (ग) वाक्+अत्र= वागत्र । वेदवाणी यहां है । (ड) श्वलिट् + अत्र = श्वलिडत्र । कुत्ते चाटनेवाला (घोरी) यहां है। (द) अग्निचित्+अत्र = अग्निचिदत्र । अग्न्याधान करनेवाला (अग्निहोत्री ) यहां है ।
सिद्धि-अजन्त: । आदि उदाहरणों में झल् वर्णों के स्थान में जश् (ज, ब, ग, ड, द) वर्ण आदेश स्पष्ट हैं। यहां क, च, ट, त प इन वर्गों के प्रथम वर्णों के स्थान में स्थानकृत आन्तर्य (सादृश्य) से क्रमश: वर्गों के तृतीय वर्ग ग, ज, ड, द, ब आदेश होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org