SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (१०) अजर्घाः। गृध्-यड्। अट्+जर्-गृध्+सिप्। अ+जर्-घर् रु। गृध्-गृधन्य। अ+जर्-गृध्+शप्+स्। अ+जर-घर् । गृ-गृध्+। अ+जर्-ग+o+स्। अ+जर्-घ०। जर्-गृध+। अ+जर-घ स्। अ+जर्-घार। ज रुक-गृध+1 अ+जर+घर +1 अ+जर्-घाः। जर-गृध्+लङ्। अ+जर्-घर छ। अजर्घाः। ___ यहां गधु अभिकाङ्क्षायाम् (दि०प०) धातु से 'धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् (३।१।२२) से 'यङ्' प्रत्यय है। 'सन्यडो:' (६।१।९) से धातु को द्वित्व, यडोऽचि च' (२१४१७४) से यङ्' का लुक, 'उरत (७।४।६६) से अभ्यास को अकारादेश, कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास को चुत्व जकार, हलादिः शेष:' (७१४१६०) से अभ्यास का आदिहल शेष, रुग्रिकौ च लुकि' (७१४९१) से अभ्यास को ‘रुक्' आगम होता है। यड्लुगन्त 'जध्' धातु से 'अनद्यतने लङ् (३।२।१११) से लङ्' प्रत्यय, अट्-आगम, लकार के स्थान में सिप्-आदेश, कर्तरि श' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से धातु को लघूपधलक्षण गुण होता है। चर्करीतं च' (अदा०गणसूत्र) से यलुगन्त के अदादिगण में परिगणित हाने से 'अदिप्रभृतिभ्य: शप:' (२।४।७२) से 'शप' का लुक होता है। इस सूत्र से धातु के एकाच अवयव, झषन्त, गई' को सकार परे होने पर बश् (ग) को भष् (घ) आदेश होता है। झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से धकार को जश् दकार 'दश्च' (८।२।७५) से दकार को रुत्व, रोरि'(८।३।१४) से पूर्ववर्ती रेफ का लोप, द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽण:' (६।३।१०९) से दीर्घ और खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८।३।१५) से अवसानलक्षण विसर्जनीय आदेश होता है। 'अजर्घा:' की इस क्लिष्ट सिद्धि को ध्यान में रखकर वैयाकरण लोग कहते हैं- 'अजर्घा यो न जानाति तस्मै कन्या न दीयते । (११) गर्धप । गर्दभ+णिच् । गर्दभ्+इ+क्विप् । गर्दभ्++० । गर्दभ् । गर्धन् । गर्धम् । यहां गर्दभ' शब्द से तत्करोति तदाचष्टेः' (३।१।२६) से करोति-अर्थ में णिच्' प्रत्यय है। वा०-'णाविष्ठवत् प्रातिपदिकस्य' (६।४।१५५) से गर्दभ के टिभाग (अ) का लोप होता है। णिजन्त गर्दभि' धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते (३।२।१७८) से क्विप' प्रत्यय और इसका सर्वहारी लोप होता है। रनिटि' (६।४।५१) से णिच्' का भी लोप होता है। गर्दभ्' इस स्थिति में इस सूत्र से धातु के एकाच झषन्त अवयव (द) के बश् (द) के स्थान में भष् (ध्) आदेश होता है। 'झलां जशोऽन्ते' (८।२।३९) से भकार को जश् बकार और बकार को वाऽवसाने (८।४।५६) से चर् पकार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy