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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
५२३ (४) व्रष्टव्यम् । यहां व्रश्च्' धातु से पूर्ववत् तव्यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् । (५) धानाभृट् आदि 'भ्रस्ज पाके' (तु०प०) धातु से पूर्ववत् । (६) रज्जसृट् आदि सृज विसर्गे (तु०प०) धातु से पूर्ववत्।
(७) कंसपरिमृट् । कंस और परि-उपसर्गपूर्वक मृजूष शुद्धौ' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् । माष्र्टा' आदि में मृजेर्वृद्धि:' (७।२।११४) से मृज्' को वृद्धि होती है।
..(८) उपयट् आदि उप-उपसर्गपूर्वक यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा० उ०) धातु से पूर्ववत्।
(९) सम्राट् । सम्-उपसर्गपूर्वक राज दीप्तौ' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् । 'मो राजि सम: क्वौ' (८।३।२५) से सम्' के मकार को मकारादेश होता है। 'मोऽनुस्वारः' (८।३।२३) से अनुस्वारादेश का अपवाद है। ऐसे ही-स्वराट्, विराट् ।
(१०) विभ्राट् । यहां वि-उपसर्गपूर्वक 'भ्राज़ दीप्तौ' (भ्वा०आ०) धातु से 'भ्राजभासधूर्विद्युतोर्जिग्रावस्तुव: क्विप्' (३।२।१७७) से तच्छील आदि अर्थों में क्विम्' प्रत्यय है।
राज और भ्राज धातु का सूत्रपाठ में पदान्तार्थ ग्रहण किया गया है, अत: झलादि प्रत्यय का उदाहरण नहीं है।
(११) शब्दप्राट् । यहां शब्द-उपपद प्रछ ज्ञीप्सायाम्' (भ्वा०प) छकारान्त धातु से वा०-क्विब्वचिप्रच्छयायतोर्जिग्रावस्तुकटघुजुश्रीणां दीर्घोऽसम्प्रसारणं च (३।२।७८) से 'क्विप' प्रत्यय, दीर्घ और सम्प्रसारण का अभाव है। 'अहिज्यावयि०' (६।१।१६) से सम्प्रसारण प्राप्त था। 'प्रष्टा' आदि में पूर्ववत् तृच' आदि प्रत्यय हैं।
(१२) लिट् । लिश अल्पीभावे (दि०आ०) शकारान्त धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते'. (३।२।१७८) से क्विप्' प्रत्यय है। लेष्टा' आदि में पूर्ववत् तृच् आदि प्रत्यय हैं।
(१४) विट् । यहां विश प्रवेशने (तु०प०) शकारान्त धातु से पूर्ववत् (३।२।१७८) क्विप्' प्रत्यय है। वष्टा' आदि में पूर्ववत् तृच्' आदि प्रत्यय हैं। भष्-आदेश:
(२०) एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः ।३७
प०वि०- एकाच: ६।१ बश: ६।१ भष् ११ झषन्तस्य ६१ स्ध्वो: ७।२।
स०-एकोऽज् यस्मिन् स एकाच, तस्य-एकाच: (बहुव्रीहि:)। झए अन्ते यस्य स झषन्त:, तस्य-झषन्तस्य (बहुव्रीहि:)। सश्च ध्वश्च तौ सध्वौ, तयो:-स्वध्वो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
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