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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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सिद्धि- कोकूयते। यहां 'कुङ् शब्दार्थ:' (भ्वा०आ०) धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् (३ । १ । २२ ) से 'यङ्' प्रत्यय है । 'सन्यङो:' ( ६ |१1९ ) से धातु को द्वित्व होता है। इससे अभ्यास- ककार को चवर्ग आदेश का प्रतिषेध होता है। 'कुहोश्चु:' (७।४।६२) से चवर्ग आदेश प्राप्त था । 'अकृत्सार्वधातुकयोः' (७।४।२५ ) से 'कु' को दीर्घ और 'गुणो यङ्लुको:' (७।४।८२) से अभ्यास को गुण (ओ) होता है।
विशेषः सूत्रपाठ में कवति' में शप्-विकरण का निर्देश होने से 'कूङ् शब्दे (तु०आ०) और 'कु शब्दे ( अदा०प०) धातु का ग्रहण नहीं किया जाता है। चु-आदेशप्रतिषेधः
(७) कृषेश्छन्दसि । ६४ ।
प०वि०- कृषेः ६ । १ छन्दसि ७।१।
अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, चुः, न, यङीति चानुवर्तते । अन्वयः - छन्दसि कृषेरङ्गस्याऽभ्यासस्य यङि चुर्न । अर्थ:-छन्दसि विषये कृषेरङ्गस्याऽभ्यासस्य यङि प्रत्यये परतश्चवगदिशो न भवति ।
उदा०-करीकृष्यते यज्ञकुणपः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (छन्दसि ) वेदविषय में (कृषेः) कृषि इस (अङ्गस्य) अङ्ग के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (यङि ) यङ् प्रत्यय परे होने पर (चुः) चवर्ग आदेश (न) नहीं होता है ।
उदा० - करीकृष्यते यज्ञकुणपः । यज्ञ का पाक पुनः-पुनः / अधिक आकृष्ट करता है । सिद्धि-करीकृष्यते। यहां 'कृष विलेखने' (भ्वा०प०) धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ्' (३ 1१ 1२२ ) से 'यङ्' प्रत्यय है । 'सन्यङो:' (६ 1१1९ ) से धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से 'कृष्' धातु के अभ्यास को चवर्ग आदेश का प्रतिषेध होता है । 'कुहोश्चुः' (७/४ / ६२ ) से चवर्ग आदेश प्राप्त था ।
निपातनम्
(८) दाधर्तिदर्धर्तिदर्धर्षिबोभूतुतेतिक्तेऽलर्ष्यापनीफणत्संसनिष्यदत्करिक्रत्कनिक्रदद्भरिभ्रद्दविध्वतोदविद्युतत्
तरित्रतः सरीसृपतंवरीवृजन्मर्मृज्यागनीगन्तीति च । ६५ । प०वि० - दाधर्ति-दधर्ति-दर्धर्षि-बोभूतु-तेतिक्ते- अलर्षि- आपनीफणत्-संसनिष्यदत्-करिक्रत्- कनिक्रदत्-भरिभ्रत्-दविध्वत:-दविद्युतत्
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