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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
पूर्ववृद्धिप्रकरणम् वृद्धिः
(१) मृजेर्वृद्धिः ।११४। प०वि०-मृजे: ६।१ वृद्धि: १।१।।
अनु०-अङ्गस्य इत्यनुवर्तते। विभक्ताविति च निवृत्तम्। 'इको गुणवृद्धी' (१।१३) इति परिभाषया च इक: इति षष्ठ्यन्तं पदमुपतिष्ठते।
अन्वय:-मृजेरमस्य इको वृद्धिः । अर्थ:-मृजेरङ्गस्य अक: स्थाने वृद्धिर्भवति । उदा०-मार्टा। माष्टुम् । माष्टव्यम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(मृजे:) मृज् इस (अङ्गस्य) अङ्ग के (इक:) इक् वर्ण के स्थान में (वृद्धि:) वृद्धि होती है।
उदा०-मार्टा । शुद्ध करनेवाला। माष्टुम् । शुद्ध करने के लिये। माष्टव्यम् । शुद्ध करना चाहिये।
सिद्धि-(१) मार्टा। मृ+तृच्। मृ+तृ । मा+तृ। मा+ट्ट । माष्टुं सु। मार्टा।
यहां 'मृजूष शुद्धौ' (अदा०प०) धातु से ‘ण्वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस तृच्' प्रत्यय के परे होने पर मृज्' धातु के इक् वर्ण (ऋ) को वृद्धि (आ) होती है और इसे उरण रपर' (११११५१) से रपरत्व होता है। वश्चभ्रस्ज०' (८।२।३६) से जकार को षकार और 'ष्टुना ष्टुः' (८१४५१) से सकार को टवर्ग टकार होता है।
(२) माष्टुम् । यहां पूर्वोक्त मृज्' धातु से 'तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियायाम्' (३।३।१०) से तुमुन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) मार्टव्यम् । यहां पूर्वोक्त 'मृज्' धातु से 'तव्यत्तव्यानीयरः' (३।१।९६) से तव्यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। वृद्धिः
(२) अचो णिति।११५। प०वि०-अच: ६।१ णिति ७।१।
स०-अश्च णश्च तौ-ब्णौ । ब्णावितौ यस्य स:-ञ्णित्, तस्मिन्-णिति (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः) ।
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