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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः सिद्धि-गाथिन: । गाथिन्+अण् । गाथिन्+अ । गाथिन+सु। गाथिनः ।
यहां गाथिन्' शब्द से तस्यापत्यम् (४।१।९२) से अपत्य-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। इस प्रत्यय के परे होने पर गाथिन्' शब्द प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से प्राप्त टि-लोप नहीं होता है। ऐसे ही- वैदथिन:' आदि।
इस सूत्र का आरम्भ अपत्यार्थक अण्' प्रत्यय के लिये किया गया है। अनपत्य अर्थ में पूर्वसूत्र से प्रकृतिभाव सिद्ध है। प्रकृतिभावः
(३८) संयोगादिश्च।१६६। प०वि०-संयोगादि: ११ च अव्ययपदम् । स०-संयोग आदिर्यस्य स संयोगादिः (बहुव्रीहिः)। अनु०-अङ्गस्य, भस्य, प्रकृत्या, इन्, अणि इति चानुवर्तते । अन्वय:-संयोगादिरिन् भम् अङ्गं च अणि प्रकृत्या।
अर्थ:-संयोगादिरिन्नन्तं भसंज्ञकम् अङ्गं च अणि प्रत्यये परत: प्रकृत्या भवति।
उदा०-शङ्खिनोऽपत्यम्-शाखिनः। मद्रिणोऽपत्यम्-माद्रिण:। वज्रिणोऽपत्यम्-वाज्रिणः । अपत्यार्थोऽयमारम्भः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (संयोगादिः) संयोग जिसके आदि में वह (इन्) इन्-अन्त (भम्) भ-संज्ञक (अङ्गम्) अङ्ग (च) भी (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है।
उदा०-शाखिनः । शङ्खी का पुत्र । माद्रिणः । मद्री का पुत्र। वाज्रिण: । वज्री का पुत्र । अपत्य-अर्थ के लिये इस सूत्र का आरम्भ किया गया है।
सिद्धि-शाखिनः । शङ्ख+इनि। शङ्ख्+इन् । शखिन्+अण्। शाखिन्+अ। शाखिन+सु। शाङ्खिनः।
यहां प्रथम 'शङ्ख' शब्द से 'अत इनिठनौ' (३।२।११५) से मतुप्-अर्थ में 'इनि' प्रत्यय है। तत्पश्चात् 'शखिन्' शब्द से तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से अपत्य-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। इस अण्' प्रत्यय के परे होने पर संयोगादि, इन्नन्त शखिन्' शब्द इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'नस्तद्धिते' (६।४।११४) से प्राप्त टि-लोप नहीं होता है। ऐसे ही 'मदिन्' शब्द से-माद्रिण:, वज्रिन्' शब्द से-वाज्रिण:।