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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः अन्वय:-अह्नो भस्य अङ्गस्य टेस्तद्धितयोष्टखोरेव लोपः।
अर्थ:-अह्न: अहन्-इत्येतस्य भस्य अङ्गस्य टेस्तद्धितयोष्टखो: प्रत्यययोरेव परतो लोपो भवति ।
उदा०-(ट:) द्वे अहनी समाहृते इति व्यह: । त्यह:। (ख:) द्वे अहनी अधीष्टो भृतो भूतो भावी वा-व्यहीनः। व्यहीनः । अह्नां समूह: क्रतु:-अहीन: क्रतुः।
आर्यभाषा: अर्थ-(अतः) अहन् इस (भस्य) भ-संज्ञक (अङ्गस्य) अङ्ग के (ट:) टि-भाग का (तद्धिते) तद्धित-संज्ञक (टखो:) ट और ख प्रत्यय परे होने पर (एव) ही (लोप:) लोप होता है।
उदा०-(ट) व्यहः। दो दिनों का समाहार। यहः । तीन दिनों का समाहार। (ख) व्यहीन: । दो दिन तक अधीष्ट-पूजित (आचार्य), भृत-वृत्ति से रखा हुआ (सेवक), भूत-हुआ, भावी होनेवाला (उत्सव) । त्यहीन: । तीन दिनों तक अधीष्ट पूजित (आचार्य), भृत (सेवक), भूत वा भावी (उत्सव)। अहीन: क्रतुः । दिनों के समूह से साध्य यज्ञविशेष ।
सिद्धि-(१) व्यहः । द्वयहन्+टच् । द्वयहन्+अ। यह+अ। व्यह+सु । व्यहः ।
यहां प्रथम द्वि और अहन शब्दों का तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' (२।२।५१) से समाहार अर्थ में द्विगुतत्पुरुष समास है। तत्पश्चात् द्वयहन्' शब्द से राजाह:सखिभ्यष्टच् (५।४।९१) से तद्धित, समासान्त 'टच्' प्रत्यय है। इस ट' प्रत्यय के परे होने पर इस सूत्र से द्वयहन्' के टि-भाग (अन्) का लोप होता है। ऐसे-त्र्यहः ।
(२) व्यहीनः । यहां प्रथम द्वि और अहन् शब्दों का पूर्ववत् तद्धितार्थ में द्विगुतत्पुरुष समास है। तत्पश्चात् द्वयहन्' शब्द से रात्र्यह:संवत्सराच्च' (५।११८७) से अधीष्ट आदि अर्थों में तद्धित 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश होता है। इ ख' प्रत्यय के परे होने पर इस सूत्र से द्वयहन्' के टि-भाग (अन्) का लोप होता है। ऐसे ही-त्र्यहीनः ।
(३) अहीन: क्रतः। यहां 'अहन्' शब्द से वा०-'अनः खः क्रतौ' (४।२।४२) से समूह-अर्थ में तद्धित ख' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। गुण:
(१८) ओर्गुणः ।१४६। प०वि०-ओ: ६१ गुण: १।१। अनु०-अङ्गस्य, भस्य, तद्धिते इति चानुवर्तते । अन्वय:-ओर्भस्य अङ्गस्य तद्धिते गुणः ।