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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
स्वर की कोमलता को 'मादर्व' कहते हैं । कण्ठ की विवृतता ( खुला होना) उस्ता कहाती है ।
(३) स्वरित का लक्षण
पाणिनि मुनि ने स्वरित का यह लक्षण किया है कि 'समाहारः स्वरित: ' (१।२ 1३१ ) अर्थात् उक्त उदात्त और अनुदात्त स्वरों का जो समाहार = सम्मिश्रण है, वह स्वरित कहाता है। स्वरित की रचना में कितनी मात्रा में उदात्त और कितनी मात्रा में अनुदात्त का मिश्रण है, इस तथ्य को समझाने के लिये पाणिनि मुनि लिखते हैं- 'तस्यादित उदात्तमर्धहस्वम्' ( १ । २ । ३२ ) स्वरित के प्रारम्भ में आधी मात्रा - भाग उदात्त और अन्त में शेष मात्रा - भाग अनुदात्त होता है । जैसे कि 'कन्या' शब्द में द्विमात्रिक 'आ' स्वरित है । इसके आदि की आधी मात्रा उदात्त है और शेष १1⁄2 डेढ़ मात्रा अनुदात्त है। ऐसा ही सर्वत्र समझें।
पाणिनि मुनि के स्वरितविषयक इस सूक्ष्म लेख की स्तुति में महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं- 'तद्यथा क्षीरोदके सम्पृक्ते आमिश्रीभूतत्वान्न ज्ञायते कियत् क्षीरम्, कियदुदकम्, कस्मिन्नवकाशे क्षीरम्, कस्मिन् वोदकमिति ? एवमिहाप्यामिश्रीभूतत्वान्न ज्ञायतेकियदुदात्तम्, कियदनुदात्तम्, कस्मिन्नवकाश उदात्तम्, कस्मिन्नवकाशेऽनुदात्तम् ? तदाचार्य: सुहृद् भूत्वाऽन्वाचष्टे - इयदुदात्तमित्यदनुदात्तमस्मिन्नवकाश उदात्तम्, अस्मिन्नवकाशेऽनुदात्तम्' ( महाभाष्यम् १।२।३३) ।
अर्थ-जैसे दूध और पानी के मिल जाने पर यह विदित नहीं होता है कि इस मिश्रण में कितना दूध और कितना पानी है तथा किस ओर दूध और किस ओर पानी है । वैसे ही यहां 'स्वरित' में भी उदात्त और अनुदात्त के मिश्रित होजाने से यह ज्ञात नहीं होता है कि इसमें कितना उदात्त और कितना अनुदात्त है तथा किस ओर उदात्त और किस ओर अनुदात्त है। इस सूक्ष्म तथ्य को आचार्य पाणिनि मुनि ने हमारा मित्र बनकर हमें उपदेश किया है कि 'स्वरित' में इतना मात्रा भाग उदात्त और इतना मात्रा - भाग अनुदात्त है तथा इसके पूर्व भाग में आधी मात्रा - भाग उदात्त और शेष मात्रा - भाग अनुदात्त है। (४) स्वरितवर्ती उदात्त
स्वरित के पूर्व भाग में जो उदात्त का अंश है वह पूर्वोक्त स्वतन्त्र 'उदात्त' से विशिष्ट है, जैसे कि महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं- 'स्वरिते य उदात्त: सोऽन्येन विशिष्ट: ' ( महाभाष्य १।२।३३) अर्थात् स्वरित में जो उदात्त है वह अन्य अर्थात् स्वतन्त्र उदात्त से विशेष है ।
(५) स्वरित के भेद
याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि ग्रन्थों में स्वरित के जात्य, अभिनिहित, क्षैत्र, प्रश्लिष्ट, तैरोव्यञ्जन, तैरोविराम, पादवृत्त और ताथाभाव्य आठ भेद बतलाये हैं। इनकी व्याख्या अधोलिखित है