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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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(४) अदायिष्यत। यहां पूर्वोक्त अजन्त 'दा' धातु से पूर्ववत् कर्मवाच्य में 'लृङ्' और 'स्य' विकरण- प्रत्यय है । चिण्वद्भाव कार्य पूर्ववत् है। विकल्प-पक्ष में चिण्वद्भाव नहीं होता है-अदास्यत ।
(५) शामिष्यते । शम्+ णिच् । शम्+इ। शाम्+इ+शामि । शामि।। शमि+लृट् । शमि+ल् । शमि+स्य+त। शमि+इट्+स्य+त । शम्०+इ+ष्य+ते। शाम्+इ+ष्य+ते । शामिष्यते ।
यहां प्रथम 'शमु उपशमें' (दि०प०) धातु से हेतुमति च' (३।१।२६ ) से 'णिच्' प्रत्यय है। 'अत उपधायाः' (७/२/११६) से अङ्ग (शम्) को उपधावृद्धि होती है। 'जनीजृष्क्नसुरञ्जोऽमन्ताश्च' (भ्वा० गणसूत्र) से 'शम्' धातु की मित्-संज्ञा है अत: 'मितां ह्रस्व:' (६।४।९९) से इसे ह्रस्व होता है- शमि | 'सनाद्यन्ता धातव:' ( ३ ।१ । ३२ ) से इस णिजन्त ‘शमि' की धातु संज्ञा है, अत: यह उपदेश अवस्था में अजन्त है । इस सूत्र से 'स्य' प्रत्यय को चिण्वद्भाव और 'इट्' आगम होता है। इस 'इट्' आगम के 'असिद्धवदत्राभात्' (६ । ४ । २२ ) से असिद्ध प्रकरण में होने से यह 'णेरनिटिं' (६/४/५१) से णि-लोप करते समय असिद्ध रहता है। 'स्य' प्रत्यय के 'चिण्वत्' होने से अचो णिति' (७।२ ।११६) से अङ्ग (शम्) को उपधावृद्धि होती है। विकल्प - पक्ष में चिण्वद्भाव नहीं है- शमिष्यते । णिजन्त अवस्था में 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७/२/३५ ) से 'इट्' आगम होकर - शमयिष्यते । ऐसे ही 'लृङ् ' लकार में - अशामिष्यत, अशमिष्यत, अशमयिष्यत ।
( ६ ) घानिष्यते । हन्+लृट् । हन्+लृ । हन्+स्य+त। हन्+इट्+स्य+त । हान्+इ+स्य+त। घान्+इ+ष्य+ते । घानिष्यते ।
यहां 'हन हिंसागत्योः' ( अदा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लृट्' प्रत्यय और 'स्य' विकरण- प्रत्यय है। इस सूत्र से 'स्य' प्रत्यय को चिण्वत् होने से अङ्ग (हन्) को 'अत उपधायाः' (७ ।२ ।११६ ) से उपधावृद्धि होती है तथा 'हो हन्तेगिन्नेषु' (७ 1३1५४) से 'हन्' के हकार को कुत्व घकार होता है। विकंल्प-पक्ष में चिण्वद्भाव नहीं है- हनिष्यते । ऐसे ही लृङ् लकार में - अघानिष्यत, अहनिष्यत ।
(७) ग्राहिष्यते। यहां 'ग्रह उपादाने' (क्रया०प०) धातु से पूर्ववत् 'लृट्' प्रत्यय और 'स्य' विकरण-प्रत्यय है । इस सूत्र से स्य' प्रत्यय को चिण्वत् होने से अङ्ग (ग्रह) को पूर्ववत् उपधावृद्धि होती है। विकल्प-पक्ष में चिण्वद्भाव नहीं है- ग्रहीष्यते। यहां 'प्रहोऽलिटिदीर्घः' (७।२।३७) से 'इट्' को दीर्घ (ई) होता है। ऐसे ही 'लृङ्' लकार में- अप्राहिष्यत, अग्रहीष्यत ।
(८) दर्शिष्यते। यहां 'दृशिर् प्रेक्षण' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लृट्' प्रत्यय और 'स्य' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से 'स्य' प्रत्यय को 'चिण्वत्' होने से अङ्ग (दृश्) को 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७ 1३1८६) से गुण तथा 'स्य' को 'इट्' आगम होता है । विकल्प-पक्ष में चिण्वद्भाव नहीं है- द्रक्ष्यते । ऐसे ही लृङ्लकार में - अदर्शिष्यत, अद्रक्ष्यत ।