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________________ षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः सिद्धि-(१) रागः। रज्+घञ्। रज्+अ। रज्+अ। राज्+अ। राग+अ। राग+सु । रागः। यहां रज रागें (दि०3०) धातु से 'भावे (३।३।१८) से भाव अर्थ में घञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'रज्ज्' अंग के उपधाभूत नकार का भाववाची 'पञ्' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। 'चजो: कु घिण्यतो:' (७।३।५२) से जकार को कुत्व गकार और अत उपधायाः' (७।२।११६) से उपधावृद्धि होती है। (२) रागः। यहां ‘रज रागे' (दि०3०) धातु से हलश्च' (३।३।१२१) से करण-कारक में 'घञ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। निपातनम् (६) स्यदो जवे।२८। प०वि०-स्यद: ११ जवे ७।१। अनु०-उपधाया:, नलोप:, घनि इति चानुवर्तते। अन्वय:-जवे स्यदो घजि उपधाया नलोपः । अर्थ:-जवेऽर्थे स्यद इत्यत्र घञि परत उपधाया नकारस्य लोपो वृद्ध्यभावश्च निपात्यते। उदा०-गवां स्यद इति गोस्यदः। अश्वस्यदः । गवाम् अश्वानां च गतिविषयको वेग इत्यर्थः । आर्यभाषा: अर्थ-(जवे) वेग अर्थ में (स्यदः) स्यद इस पद में (घजि) घञ् प्रत्यय परे होने पर (उपधायाः) उपधाभूत (नलोप:) नकार का लोप और वृद्धि का अभाव निपातित है। उदा०-गोस्यदः । गौओं का गतिविषयक वेग। अश्वस्यदः । घोड़ों का गतिविषयक वेग। सिद्धि-स्यदः । स्यन्द्+घञ् । स्यन्द्+अ। स्यद्+अ । स्यदः । गो+स्यद:-गोस्यदः । यहां 'स्यन्दू प्रस्रवणे' (भ्वा०आ०) धातु से 'भावे (३।३।१८) से भाव अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय है। निपातन से उपधाभूत नकार का लोप और 'अत उपधायाः' (७।२।११६) से प्राप्त उपधावृद्धि का अभाव है। ऐसे ही-अश्वस्यदः । निपातनम् (७) अवोदैधोद्मप्रश्रथहिमश्रथाः ।२६। प०वि०-अवोद-एध-ओद्म-प्रश्रथ, हिमश्रथाः १।३ ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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