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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(३) अक्षद्यू: । अक्ष+दिव्+क्विप् । अक्ष्+दि ऊठ् + वि० । अक्ष+ दि ऊ+0 | अक्षद्यू+सु ।
अक्षद्यूः ।
यहां अक्ष-उपपद 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदस्वप्नकान्तिगतिषु' (दि०आ०) धातु से 'क्विप् च' ( ३।२।७८) से क्विप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'दिव्' के वकार को 'क्विप्' प्रत्यय परे होने पर ऊठ् आदेश होता है । 'इको यणचि' (६ 1१1७६) सेयण आदेश होता है। ऐसे ही - हिरण्यद्यू: ।
(५) पृष्टः । प्रच्छ् + क्त । प्रच्छ्+त । पृश्+त । पृष्+त । पृष्+ट। पृष्ट+सु । पृष्टः । यहां 'प्रछ ज्ञीप्सायाम्' (भ्वा०प०) धातु से 'निष्ठा' (३ । २ । १०२ ) से भूतकाल अर्थ में 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'प्रच्छ्' के छकार को झलादि कित् 'त' प्रत्यय परे होने पर शकार आदेश होता है । 'प्रहिज्या०' (६ | १ | १६ ) से धातु को सम्प्रसारण, 'व्रश्चभ्रस्ज०' (८ / २ / ३६ ) से शकार को षकार और 'टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकारवर्ग को टवर्ग टकार होता है। ऐसे ही 'क्तवतु' प्रत्यय करने पर - पृष्टवान् ।
(६) पृष्ट्वा । यहां 'प्रछ ज्ञीप्सायाम् (भ्वा०प०) धातु से 'समानकर्तृकयोः पूर्वकालें (८ 1२ 1२१) से 'क्त्वा' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(७) द्यूत: । दिव्+क्त । दि ऊठ्+त । दि ऊ+त । द्यूत+सु । द्यूतः ।
यहां 'दिवु क्रीडादिषु' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से दिव्' के वकार को झलादि, कित् त' प्रत्यय परे होने पर 'ऊठ्' आदेश होता है। 'इको यणचि' (७ 1१1७६ ) से 'यण्' आदेश है। ऐसे ही 'क्तवतु' प्रत्यय करने पर द्यूतवान् और 'क्त्वा ' प्रत्यय करने पर 'द्यूत्वा' शब्द सिद्ध होता है।
ऊडादेश:
(२) ज्वरत्वरस्त्रिव्यविमवामुपधायाश्च | २० | प०वि०-ज्वर-त्वर-त्रिवि - अवि-मवाम् ६ । ३ उपधायाः ६।१ च
अव्ययपदम् ।
स०-ज्वरश्च त्वरश्च स्त्रिविश्च अविश्व मव् च ते- ज्वरत्वरस्त्रिव्यविमव:, तेषाम्-ज्वरत्वरस्त्रिव्यविमवाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु० - अङ्गस्य, क्विझलो, क्ङिति वः, ऊठ् इति चानुवर्तते ‘च्छ्वो:' इत्यस्माद् ‘व:’ शूठ् इत्यस्माच्च ऊठ् इत्यनुवर्तनीयमर्थसम्भवात् । अन्वयः-ज्वरत्वरस्रिव्यविमवाम् अङ्गानां वस्य उपधायाश्च क्विझलो : क्ङिति च ऊठ् ।