________________
५५६
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् दीर्घ:
(१६) अज्हन्गमा सनि।१६। प०वि०-अच्-हन्-गमाम् ६।३ सनि ७।१।
स०-अच् च हन् च गम् च ते-अज्हन्गम:, तेषाम्-अज्हन्गमाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-दीर्घः, अङ्गस्य, उपधायाः, झलि इति चानुवर्तते। अन्वय:-अज्हन्गमाम् अङ्गानाम् उपधाया झलि सनि दीर्घः ।
अर्थ:-अजन्तानाम् अङ्गानां हनिगम्योश्च अङ्गयोरुपधाया झलादौ सनि परतो दी? भवति।
उदा०-(अजन्त:) चिचीषति। तुष्टूपति। चिकीर्षति। (हन्) जिघांसति। (गम्) अधिजिगांसते।
आर्यभाषा: अर्थ-(अज्हन्गमाम) अजन्त अंगों और हन् और गम् (अङ्गस्य) अंगों की (उपधायाः) उपधा को (झलि) झलादि (सनि) सन् प्रत्यय परे होने पर (दीर्घ:) दीर्घ होता है।
उदा०-(अजन्त) चिचीषति । वह चयन करना चाहता है। तुष्टूपति । वह स्तुति करना चाहता है। चिकीर्षति । वह करना चाहता है। (हन्) जिघांसति । वह हिंसा/गति करना चाहता है। (गम्) अधिजिगांसते । वह अध्ययन करना चाहता है।
सिद्धि-(१) चिचीषति । चि+सन्। ची+सन्। ची+ची+स। चिचीष+लट् । चिचीष+तिम्। चिचीष+शप्+ति। चिचीष+अ+ति । चिचीषति।
यहां चिञ् चयने (स्वा०उ०) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।११७) से 'सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से अजन्त चि' धातु को झलादि सन् प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है। तत्पश्चात् ‘सन्यङो:' (६।१।९) से दीर्घाभूत 'ची' धातु को द्वित्व होता है। पुन: सन्नन्त चिचीष' धातु से लट् आदि कार्य होते हैं।
(२) तुष्टूपति । यहां 'ष्टुञ स्तुतौ' (अदा०उ०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय है। 'शपूर्वा: खय:' (७।४।६१) से अभ्यास को खय् तकार शेष रहता है। दीर्घ आदि कार्य पूर्ववत् है।
(३) चिकीर्षति । यहां 'डुकृञ् करणे (तनाउ०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से अजन्त 'कृ' धातु को झलादि सन्' प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है। तत्पश्चात् ऋत इद्धातोः' (७।१।१००) से ऋकार को इत्त्व, उरण रपरः' (१।१।५१)