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________________ षष्टाध्यायस्य तृतीयः पादः ५१७ सिद्धि-(१) लीढम्। लिह+क्त। लिह+त। लिढ+ध। लिद+ढ। लिo+ढ। लीढ+सु। लीढम्। ___ यहां लिह आस्वादने (अदा०3०) धातु से 'निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल अर्थ में 'क्त' प्रत्यय है। हो ढः' (८।२।३१) से लिह के हकार को ढकार, झषस्तथोर्थोऽध:' (८।२।४०) से क्त के तकार को धकार, 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से धकार को ढकार और ढो ढे लोप:' (८।३।१३) से ढकार परे होने पर पूर्ववर्ती ढकार का लोप होता है। इस सूत्र से ढलोप परे होने पर लिह' के पूर्ववर्ती इकार अण् को दीर्घ होता है। (२) मीढम् । यहां 'मिह सेचने (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् क्त' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (३) उपगूढम् । यहां उप-उपसर्गपूर्वक 'गुहू संवरणे' (भ्वा० उ०) धातु से पूर्ववत् क्त' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (४) मूढः । यहां 'मुह वैचित्ये' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् क्त' प्रत्यय है। (५) नीरक्तम् । यहां निर् और रक्त शब्दों का कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) प्रादितत्पुरुष समास है। रोरि' (८।३।१४) से 'रक्त' का रेफ परे होने पर पूर्ववर्ती रेफ का लोप होता है। इस सूत्र से रेफलोपी रक्त उत्तरपद परे होने पर पूर्ववर्ती इकार अण को दीर्घ होता है। ऐसे ही-अग्नि+रथ: । अग्नि०+रथः । आनी रथः । इन्दु+रथः । इन्दु०+रथः । इन्दू रथः।। पुनर्+रक्तम्। पुन०+रक्तम् । पुना रक्तम् ।। प्रात+राजक्रयः । प्रात०+राजक्रयः। प्राता राजक्रयः ।। ओकार आदेशः (३५) सहिवहोरोदवर्णस्य।११२। प०वि०-सहि-वहो: ६।२ ओत् १।१ अवर्णस्य ६।१। स०-सहिश्च वह् च तौ सहिवहौ, तयो:-सहिवहो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अश्चासौ वर्ण इति अवर्णः, तस्य-अवर्णस्य (कर्मधारय:)। अनु०-उत्तरपदे इति नानुवर्तते, अर्थासम्भवात्, ठूलोपे इति चानुवर्तते । अन्वय:-सहिवहोरवर्णस्य लोपे परत ओकारादेशो भवति। उदा०- (सहि:) सोढा, सोढुम्, सोढव्यम्। (वह) वोढा, वोढुम्, वोढव्यम्।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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