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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां 'टुओश्वि गतिवृद्ध्यो :' (भ्वा०प०) धातु से प्रथम हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच् प्रत्यय तत्पश्चात् णिजन्त शिव+इ' धातु से 'धातो: कर्मण: कर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से सन् प्रत्यय करने पर, सन्परक णिच् प्रत्यय परे होने से इस सूत्र से 'शिव' धातु को सम्प्रसारण और सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०५) से इकार को पूर्वरूप एकादेश, 'अचो णिति' (७।२।११५) से शु अंग को वृद्धि शौ' होती है। 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२।३५) से सन् को 'इट' आगम होता है। सन्यडोः' (६।१।९) से प्रथम एकाच समुदाय को द्वित्व प्राप्त होने पर द्विर्वचनेऽचि' (१।११५८) से अजादेश को स्थानिवत् मानकर शु' को द्विर्वचन होता है। आदेशप्रत्यययो:' (८।३।५९) से षत्व होकर शुशावयिष' धातु से लट्' प्रत्यय है।
(२) शिश्वाययिषति । यहां श्वि' धातु से सन्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से विकल्प पक्ष में सम्प्रसारण नहीं है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) अशूशवत् । श्वि+णिच् । शिव+इ। श्व+इ। श्वि+इ लुङ्। अट्+श्वि+इ+ चिल+ल। अ+श्वि+इ+च+तिप् । अ+शउइ+इ+अ+त् । अ+शु+इ+अ+त् । अ+शौ+इ+अ+त् । अ+शाव्+इ+अ+त् । अ+शु-शाव्+अ+त् । अ+शू+शव+अ+त्। अशूशवत्।
यहां प्रथम 'शिव' धातु से हतुमति च' (३।१।२६) से णिच् प्रत्यय, तत्पश्चात् णिजन्त शिव+इ' धातु से लुङ् प्रत्यय है। णिश्रिद्भुनुभ्य: कर्तरि चङ्' (३।१।४८) से 'च्लि' के स्थान में चङ्' आदेश होता है। इस सूत्र से चङ्परक णिच् प्रत्यय पर शिव धातु को सम्प्रसारण और सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०५) से इकार को पूर्वरूप एकादेश होता है। 'चडि' (६।१।११) से द्विर्वचन प्राप्त होने पर द्विवचनेऽचि' (११५८) से अजादेश को स्थानिवत् मानकर 'शु' को द्वित्व होता है। णौ चड्युपधाया हस्व:' (७।४।१) से उपधा को ह्रस्व और 'दी? लघो:' (७।४।१) से अभ्यास को दीर्घ होता है।
(४) अशिश्वियत् । यहां शिव धातु से प्रथम णिच् प्रत्यय और तत्पश्चात् णिजन्त श्वि धातु से लुङ् प्रत्यय है। यहां इस सूत्र से विकल्प पक्ष में सम्प्रसारण नहीं है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
"सम्प्रसारणं सम्प्रसारणाश्रयं च कार्य बलीयो भवति" इस वचन प्रमाण से अन्तरंग वृद्धि आदि कार्य को सम्प्रसारण बाधित करता है। सम्प्रसारण करने पर प्राप्त वृद्धि और आवादेश होता है।
सम्प्रसारणम्
(२०) ह्रः सम्प्रसारणम्।३२। प०वि०-हृ: ६।१ सम्प्रसारणम् १।१। अनु०-धातो:, णौ च सँश्चडोरिति चानुवर्तते।