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________________ षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः ३३ अनु०-धातो:, प्यायः, पी इति चानुवर्तते, विभाषा इति निवृत्तम् । अन्वयः - लिड्यङोश्च प्यायो धातोः पीः । अर्थ:- लिटि यङि च प्रत्यये परतः प्यायो धातो: स्थाने पी- आदेशो भवति । उदा०-(लिट्) आपिप्ये। आपिप्याते । आपिप्यिरे । (यङ्) आपेपीयते । आपेयीयाते । आपेपीयन्ते 1 आर्यभाषाः अर्थ- (लिड्यङो: ) लिट् और यङ् प्रत्यय परे होने पर (च) भी (प्यायः) प्याय् (धातोः) धातु के स्थान में (पी) पी आदेश होता है । उदा०- (लिट्) आपिप्ये। वह बढ़ा। आपिप्याते। वे दोनों बढ़े। आपिप्पिरे । वे सब बढ़े। (यङ्) आपेपीयते। वह पुन: पुन: /अधिक बढ़ता है। आपेयीयाते । वे दोनों पुन: पुन: /अधिक बढ़ते हैं। आपेपीयन्ते। वे सब पुन:-पुनः/अधिक बढ़ते हैं। सिद्धि-आपिप्ये । आङ्+प्याय्+लिट् । आ+पी+त। आ+पी+एश्। आ+पी-पी+ए। आ+पि- प्य्+ए । आपिप्ये । यहां आङ् उपसर्गपूर्वक 'ओप्यायी वृद्धौं' (भ्वा०आ०) धातु से लिट् प्रत्यय, उसके लकार के स्थान में 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से 'त' आदेश और 'लिटस्तझयोरेशिरेच्०' (३।४।८१) से 'त' के स्थान में 'एश्' आदेश ओता है। इस सूत्र से 'प्याय्' के स्थान में 'पी' आदेश, 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६ । १1८) से 'पी' को दित्व, 'हस्व:' (७/४/५९) से अभ्यास को ह्रस्व और 'एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य' (६।४।८२) से यण् आदेश होता है । ऐसे ही - आपिप्याते, आपिप्यिरे । (२) आपेपीयते । आङ्+प्याय्+यङ् । आ+प्याय्+य। आ+पी+य। आ+पीय्-पीय । आ+पी-पीय। आ+पे-पीय। आपेपीय+लट् । आपेपीय+त। आ+पेपीय+शप्+त । आ+पेपीय+अ+ते । आपेपीयते । / यङ् यहां आङ् उपसर्गपूर्वक 'प्याय्' धातु से 'धातोरेकाचो० ' ( ३।१।२२) से प्रत्यय है। इस सूत्र से 'प्याय्' के स्थान में 'पी' आदेश, 'सन्यङो:' ( ६ 1१1९ ) से 'पीयू' को द्वित्व और 'गुणो यङ् लुको:' (७।४।८२) से अभ्यास को गुण होता है। तत्पश्चात् 'आपेपीय' यङन्त धातु से लट् प्रत्यय है। ऐसे ही- आपेपीयाते, आपेपीयन्ते । सम्प्रसारण-विकल्पः (१८) विभाषा श्वेः । ३० । प०वि० - विभाषा १ । १ श्वे: ६ । १ । अनु०-धातो:, सम्प्रसारणम्, लिड्यङोरिति चानुवर्तते ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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