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षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-(हलन्त:) युधि तिष्ठतीति युधिष्ठिरः। त्वचिसारः। 'गविष्ठरः' इत्यत्र तु 'गवियुधिभ्यां स्थिर:' (८।३।८५) इत्यस्मादेव वचनाद् अलुम् भवति। (अदन्तः) अरण्ये तिलका इति अरण्येतिलका: । अरण्येमाषका: । वनेकिंशुकाः । वनेहरिद्रका: । वनेबल्वजका: । पूर्वाणेस्फोटका: । कूपेपिशाचकाः।
आर्यभाषा: अर्थ-(संज्ञायाम्) संज्ञा विषय में (हलदन्तात्) हलन्त और अकारान्त शब्द से परे (सप्तम्या:) सप्तमी विभक्ति का (उत्तरपदे) उत्तरपद परे होने पर (अलुक्) लुक् नहीं होता है।
उदा०-(हलन्त) युधिष्ठिरः । युध्-युद्ध में स्थिर होनेवाला, धर्मराज युधिष्ठिर। गविष्ठरः । गौ=अपनी वाणी पर स्थिर रहनेवाला। (अदन्त) अरण्येतिलकाः । अरण्य जंगल में होनेवाले तिल। अरण्येमाषका: । अरण्य में होनेवाले माष-उड़द। वनेकिंशुकाः । वन में होनेवाले किंशक-ढाक। वनेहरिद्रकाः। वन में होनेवाली हरिद्रा-हल्दी। वनेबल्वजका:। वन में होनेवाली बल्वज नामक घासविशेष। पूर्वाह्णस्फोटका: । पूर्वाह्ण में शब्दविशेष करनेवाले। कूपेपिशाचकाः । कूप में रहनेवाले पिशाच लोग।
सिद्धि-(१) युधिष्ठिरः । यहां युध् और स्थिर शब्दों का संज्ञायाम् (२।१।४४) से सप्तमी तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से संज्ञाविशेष में हलन्त युध-शब्द से परे सप्तमी-विभक्ति का स्थिर उपपद होने पर लुक् नहीं होता है। 'गवियुधिभ्यां स्थिरः' (८।३।९५) से स्थिर के सकार को षकार और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से थकार को ठकार होता है।
(२) गविष्ठिरः । यहां गो और स्थिर शब्दों का पूर्ववत् सप्तमी तत्पुरुष समास है। गो शब्द न तो हलन्त है और न ही अकारान्त है अत: यहां गवियुधिभ्यां स्थिरः' (८।३।९५) इसी सूत्रोक्त कथन से सप्तमी विभक्ति का अलुक होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) अरण्येतिलका: । यहां अरण्य और तिलक शब्दों का पूर्ववत् सप्तमी तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से संज्ञाविशेष में अकारान्त अरण्य शब्द से परे सप्तमी विभक्ति का तिलक' उत्तरपद होने पर लुक् नहीं होता है। ऐसे ही-वनेकिंशुका: आदि। सप्तमी-अलुक
(१०) कारनाम्नि च प्राचां हलादौ।१०।
प०वि०-कार-नाम्नि ७१ च अव्ययपदम्, प्राचाम् ६१३ हलादौ ७।१।