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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
(८/२/६) से भ्रस्ज् के जकार को षकार और 'टुना ष्टुः' (८/४/४०) से तकार को टकार आदेश होता । 'स्को: संयोगाद्योरन्ते च' (८ । २ । २९ ) से 'भ्रस्ज्' के संयोगादि सकार का लोप होता है। ऐसे ही क्तवतु करने पर-भ्रष्टवान् ।
(२४) भृज्जति। यहां पूर्वोक्त 'अस्ज' धातु लट् प्रत्यय और उसके लकार के स्थान में तिप् आदेश है। 'तुदादिभ्य: श:' ( ३ | १/७७ ) से 'श' विकरण प्रत्यय है। 'सार्वधातुकमपित्' (१/२/४ ) से 'श' प्रत्यय के ङित् होने से 'भ्रस्ज्' धातु को सम्प्रसारण होता है। यहां 'भ्रस्ज्' धातु के सकार 'झलां जश् झशि' (८/४/५२ ) से जश् दकार और उसे 'स्तो: श्चुना श्चु:' ( ८ | ४ | ३९) से चवर्ग जंकार होता है।
(२५) बरीभृज्यते। यहां पूर्वोक्त 'भ्रस्ज' धातु से 'धातोरेकाचो०' (३।१।२२) से यङ् प्रत्यय है। प्रत्यय के ङित् होने से इस सूत्र से 'भ्रस्ज' धातु को सम्प्रसारण होता है । 'रीगृदुपधस्य च' (७/४1९०) से अभ्यास को रीक् आगम होता है।
अभ्यासस्य सम्प्रसारणम्
(५) लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् ॥ १७ ॥
प०वि०-लिटि ७।१ अभ्यासस्य ६ ।१ उभयेषाम् ६ । ३ । अनु०-धातो:, सम्प्रसारणम् इति चानुवर्तते । अन्वयः-उभयेषां धातूनां लिटि अभ्यासस्य सम्प्रसारणम् । अर्थः-उभयेषाम्=वच्यादीनां ग्रह्यादीनां च धातूनां लिटि प्रत्यये परतोऽभ्यासस्य सम्प्रसारणं भवति । उदाहरणम्
धातुः
(१) वचि:
(२) स्वपि:
(३) यज
(४) डुवप्
(१)
(२)
लिट्
स उवाच
त्वम् उवचिथ ।
(१) स सुष्वाप
(२) त्वं सुष्वपिथ ।
(१) सइयाज
(२) त्वम् इयजिथ
(१) स उवाप (२) त्वम् उपपिथ
(१) (१) उसने कहा । (२) तूने कहा ।
(२) (१) वह सोया । (२) तू सोया ।
(३) (१) उसने यज्ञ किया । (२) तूने यज्ञ किया ।
(४) (१) उसने बोया / काटा। (२) तूने बोया / काटा |