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________________ ३५२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे शिति-शब्दात् परं यद् भसत्-शब्दवर्जितं नित्यमबहज् उत्तरपदं तत् प्रकृतिस्वरं भवति । उदा०-शिती पादौ यस्य सः-शितिपाद: । शत्यंस: । शत्योष्ठः । आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (शिते:) शिति-शब्द से परे (अभसत्) भसत् शब्द से भिन्न जो (नित्याबहच्) नित्य-अबहूच् (उत्तरपदम्) उत्तरपद है वह (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है। उदा०-शितिपाद: । काळे चरणोंवाला पुरुष। शित्यंस: । काळे कन्धोंवाला पुरुष । शित्योष्ठः । काळे होठोंवाला पुरुष। सिद्धि-(१) शितिपादः। यहां शिति और पाद शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे' (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से बहुव्रीहि समास शिति शब्द से परे नित्य-अबहच्वाले पाद उत्तरपद को प्रकृतिस्वर होता है। पाद शब्द वृषादीनां च' (६।१।१६७) से आधुदात्त है। (२) शित्यंस: और शित्योष्ठ: शब्दों में अंस उत्तरपद 'अमे: सन्' (उणा० ५ १) से सन्-प्रत्ययान्त है और ओष्ठ उत्तरपद उषिकुषिगातिभ्यस्थन्' (उणा० २।४) से थन्-प्रत्ययान्त है। अत: दोनों शब्दों में प्रत्यय के नित् होने से ये नित्यादिर्नित्यम् (६।१।१९१) से आधुदात्त हैं। शेष कार्य पूर्ववत् है। यहां बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम् (६।२।१) से शितिपाद' को प्रकृतिस्वर प्राप्त था। यह सूत्र उसका अपवाद है। शिति' शब्द वर्णानां तणतिनितान्तानाम् (फिट २।१०) से आधुदात्त है। प्रकृतिस्वर: (३) गतिकारकोपपदात् कृत् ।१३६ । प०वि०-गति-कारक-उपपदात् ५।१ कृत् ११। स०-गतिश्च कारकं च उपपदं च एतेषां समाहारो गतिकारकोपपदम्, तस्मात्-गतिकारकोपपदात् (समाहारद्वन्द्वः) । अनु०-उत्तरपदम्, तत्पुरुषे, प्रकृत्या इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्पुरुषे गतिकारकोपपदात् कृद् उत्तरपदं प्रकृत्या। अर्थ:-तत्पुरुष समासे गते: कारकाद् उपपदाच्च परं कृदन्तम् उत्तरपदं प्रकृतिस्वरं भवति।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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