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________________ ३१४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-भूतार्मम् । यहां भूत और अर्म शब्दों का 'षष्ठी (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से अर्म शब्द उत्तरपद होने पर भूत पूर्वपद को आधुदात्त स्वर नहीं होता है। 'अर्मे चावर्ण व्यच् त्र्यच्' (६।२।९८) से पूर्वपद को आधुदात्त स्वर प्राप्त था, उसका प्रतिषेध किया है। समासस्य' (६।१।२१८) से समास को अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही-अधिकार्मम् आदि। ।। इति पूर्वपदायुदात्तप्रकरणम् ।। पूर्वपदान्तोदात्तप्रकरणम् अन्तोदात्ताधिकार: (१) अन्तः ।१२। वि०-अन्त: ११। अनु०-पूर्वपदम्, उदात्त इति चानुवर्तते । आदिरिति च निवृत्तम्। अन्वय:-पूर्वपदम् अन्तोदात्तः। अर्थ:-अन्त इत्यधिकारोऽयम्, इत उत्तरं यद् वक्ष्यति तत्र पूर्वपदमन्तोदात्तं भवतीति वेदितव्यम्। वक्ष्यति- 'सर्वं गुणकात्स्न्ये (६।२।९३) इति। सर्वश्वेत: । सर्वकृष्णः। उत्तरपदस्यादिः' (६।२।१११) इत्यस्मात् प्रागयमधिकारो वेदितव्यः । आर्यभाषा: अर्थ- ‘अन्त:' यह अधिकार सूत्र है। पाणिनि मुनि इससे आगे जो कहेंगे वहां (पूर्वपदम्) पूर्वपद (अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त होता है, ऐसा जानें। जैसे पाणिनि मुनि कहेंगे- 'सर्वं गुणकात्स्न्ये (६ ।२।९३) सर्वश्वत: । सारा सफेद। सर्वकृष्णः । सारा काला। 'उत्तरपदस्यादि:' (६।२।१११) से पहले-पहले यह अधिकार समझना चाहिये। सिद्धि-सर्वश्वेत: आदि पदों की सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी। अन्तोदात्तम् (२) सर्वं गुणकात्स्न्ये । ६३ । प०वि०-सर्वम् १ ।१ गुण-कात्स्न्ये ७।१। स०-गुणस्य कात्यमिति गुणकात्य॑म्, तस्मिन्-गुणकात्स्न्र्ये (षष्ठीतत्पुरुष:)। कृत्स्नस्य भाव: कास्नयम्=सर्वत्रभाव इत्यर्थः । गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' (५।१।१२४) इत्यनेन ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वाद् भावे ष्यञ्प्रत्ययः।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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