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________________ २६६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्। __ उदा०- (गोत्रम्) जङ्घा वात्स्य इति जङ्घावात्स्य: । भार्या प्रधानं सौश्रुत इति भार्यांसौश्रुतः। वशाप्रधानं ब्राह्मकृतेय इति वशाब्राह्मकृतेयः । (अन्तेवासी) कुमारीलाभकामा दाक्षा इति कुमारीदाक्षा: । कम्बललाभकामा श्चारायणीया इति कम्बलचारायणीया:। घृतलाभाकामा रौढीया इति घृतरौढीया: । ओदनलाभकामा: पाणिनीया इति ओदनपाणिनीयाः । (माणव:) भिक्षालाभकामो माणव इति भिक्षामाणव: । (ब्राह्मण:) दास्या: कामयिता ब्राह्मण इति दासीब्राह्मण: । वृषल्या: कामयिता ब्राह्मण इति वृषलीब्राह्मणः । भयेन ब्राह्मण इति भयब्राह्मणः । “यो ब्राह्मण एव सन् राजदण्डादिभयेन ब्राह्मणाचारं करोति, न श्रद्धया स एवं क्षिप्यते” (पदमञ्जरी)। आर्यभाषा8 अर्थ-(क्षेपे) निन्दावाची समास में (गोत्रान्तेवासिमाणवब्राह्मणेषु) गोत्रवासी और अन्तेवासीवाची शब्द उत्तरपद होने पर तथा माणव और ब्राह्मण शब्दों के उत्तरपद होने पर (पूर्वपदम्) पूर्वपद (आदिरुदात्त:) आधुदात्त होता है। उदा०-(गोत्र) जीवात्स्यः । श्राद्ध आदि कर्मों में वात्स्यगोत्रीय ब्राह्मणों का ही चरण-प्रक्षालन की कामना से वात्स्योऽहम्' कहता है वह जङ्घावात्स्य:' कहाता है। भार्यासौश्रुत: । सौश्रुत-सुश्रुत का पुत्र भार्याप्रधान है अर्थात् उसके घर में उसकी भार्या की चलती है, सौश्रुत की नहीं। वशाब्राह्मकृतेयः । ब्राह्मकृतेय ब्रह्मकृत का पुत्र वशाप्रधान है. अर्थात् उसकी पत्नी वशा (वन्ध्या) है और घर में उसी की चलती है। (अन्तेवासी) कुमारीदाक्षा:। कुमारी की प्राप्ति (विवाह) के लिये जो दाक्षि आचार्य के अन्तेवासी (शिष्य) बने हुये हैं। दाक्षि (व्याडि) कृत संग्रह नामक ग्रन्थ को पढ़नेवाले। कम्बलचारायणीयाः। कम्बल की प्राप्ति के लिये जो चारायण आचार्य के शिष्य बने हुये हैं। पतरौढीया: । घत प्राप्ति के लिये जो रोढि आचार्य के शिष्य बने हुये हैं। ओदनपाणिनीयाः । जो ओदन (भात) प्राप्ति के लिये पाणिनि मुनि के शिष्य बने हुये हैं। (माणव) भिक्षामाणवः । भिक्षाप्राप्ति के लिये जो माणव (ब्रह्मचारी) बना हुआ है। (ब्राह्मण) दासीब्राह्मणः । दासी का कामुक ब्राह्मण। वर्षलीब्राह्मण: । वृषली का कामुक ब्राह्मण। भयब्राह्मणः। जो ब्राह्मण होता हुआ भी राजदण्ड आदि के भय से ब्राह्मण-धर्म का आचरण करता है, श्रद्धापूर्वक नहीं। इन जङ्घावात्स्य:' आदि समस्त उदाहरणों में क्षेप (निन्दा) अर्थ स्पष्ट है। सिद्धि-(१) जोवात्स्य: । यहां जया और गोत्रवाची वात्स्य शब्दों का 'सुप् सुपा (२।१।४) से क्षेपवाची केवलसमास है। इस सूत्र से जङ्घा पूर्वपद को आधुदात्त स्वर होता है। वात्स्य' शब्द में गर्गादिभ्यो यज्ञ' (४।१।१०५) से गोत्रापत्य अर्थ में यज्' प्रत्यय है। (२) भार्यासौश्रुत:। यहां भार्याप्रधान और गोत्रवाची सौश्रुत शब्दों का वा०'शाकपार्थिवादीनामुपसंख्यानमुत्तरपदलोपश्च' (२।१।५९) से कर्मधारय तत्पुरुष समास
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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