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षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः सिद्धि-राजनापित: । यहां राजन् और नापित शब्दों का षष्ठी (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। ‘राजन्' शब्द में कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्विद्युप्रतिदिवः' (उणा० ११५६) से कनिन् प्रत्यय है। प्रत्यय के नित् होने से यह जित्यादिनित्यम् (६।१ ।१९१) से आधुदात्त है। यह इस सूत्र से शिल्पीवाची शब्द उत्तरपद होने पर तथा प्रशंसा अर्थ अभिधेय में प्रकृतिस्वर से रहता है। विकल्प पक्ष में समासस्य (६।१।२१७) से अन्तोदात्त स्वर होता है-राजनापितः । ऐसे ही-राजेकुलाल: । राजकुलालः ।
।। इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरप्रकरणम् ।।
पूर्वपदाधुदात्तप्रकरणम् आधुदात्ताधिकार:
(१) आदिरुदात्तः ।६४। प०वि०-आदि: ११ उदात्त: ११ । अनु०-पूर्वपदमित्यनुवर्तते। अन्वय:-पूर्वपदमादिरुदात्त:।
अर्थ:-इतोऽग्रे यद् वक्ष्यति तत्र पूर्वपदमाधुदात्तं भवतीत्यधिकारोऽयम्। वक्ष्यति- 'सप्तमीहारिणौ धर्मेऽहरणे (६।२।६५) इति । स्तूपेशाणः । मुकुटेकार्षपणम्। याज्ञिकाश्व: । दृषदिमाषक:। ___ आदिरिति प्राक् ‘अन्तः' (६।२।९२) इत्यधिकारात् । उदात्त इति च प्राक् 'प्रकृत्या भगालम्' (६।२।१३७) इति यावद् वेदितव्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ-पाणिनि मुनि इससे आगे जो कहेंगे वहां (पूर्वपदम्) पूर्वपद (आदिः, उदात्त:) आधुदात्त होता है। यह अधिकार सूत्र है। जैसे पाणिनि मुनि कहेंगे'सप्तमीहारिणौ धर्मेऽहरणे' (६ ।२।६५) स्तूपेशाण: । मुकुटेकार्षपणम् । याज्ञिकाश्वः । दृषदिमाषक:।
इन उदाहरणों का भाषार्थ और सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी।
आदि' का अधिकार 'अन्तः' (६।२।९२) के अधिकार से पहले-पहले है और 'उदात्त' का अधिकार प्रकृत्या भगालम् (६।२।१३७) से पहले-पहले जानें। आधुदात्तम्
(२) सप्तमीहारिणौ धर्मेऽहरणे।६५। प०वि०-सप्तमी-हारिणौ ११ धर्मे ७ ।१ अहरणे ७।१।