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________________ २३० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् स०-चिरं च कृच्छ्रे च ते चिरकृच्छ्रे, तयो:-चिरकृच्छ्रयो: (इतरेतर योगद्वन्द्व:)। अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, तत्पुरुषे इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्पुरुषे चिरकृच्छ्रयो: प्रतिबन्धि पूर्वपदं प्रकृत्या। अर्थ:-तत्पुरुष समासे चिरकृच्छ्रयोरुत्तरपदयो: प्रतिबन्धिवाचि पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति। उदा०-(चिरम्) गमनं च तच्चिरम्-गमनचिरम् । व्याहरणचिरम्। (कृच्छ्रम्) गमनं च तत् कृच्छ्रम्-गमनकृच्छ्रम् । व्याहरणकृच्छ्रम्। अत्र 'मयूरव्यंसकादयश्च' (२।१।७१) इति कर्मधारयतत्पुरुषः । ___गमनं हि कारणविकलतया चिरकालभावि कृच्छ्रयोगि वा सत् प्रतिबन्धि जायते। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्पुरुषे) तत्पुरुष समास में (चिरकृच्छ्रयोः) चिर और कृच्छ्र शब्द उत्तरपद होने पर (प्रतिबन्धि) प्रतिबन्धी विघातीवाची पूर्वपद (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है। उदा०-(चिर) गमनचिरम् । चिरकालभावी गमन (जाना)। व्याहरणचिरम् । चिरकालभावी व्याहरण (बोलना)। (कृच्छ्र) गमनकृच्छ्रम् । दुःखदायी गमन (जाना)। व्याहरणकृच्छ्रम् । दुःखदायी व्याहरण (बोलना)। ___ गाड़ी आदि के अभाव से गमन आदि चिरकालभावी वा कृच्छ्रयोगी होता हुआ प्रतिबन्धी (रुकावटी) हो जाता है। सिद्धि-(१) गमनचिनम् । गमन+सु+चिर+सु । गमनचिर+सु । गमनचिरम् । यहां प्रतिबन्धीवाची गमन और चिर शब्दों का 'मयूरव्यंसकारदयश्च' (२।१।७१) से कर्मधारयतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से चिर शब्द उत्तरपद होने पर प्रतिबन्धीवाची गमन पूर्वपद प्रकृतिस्वर से रहता है। गमन' शब्द ल्युट्-प्रत्ययान्त होने से लित्स्वर से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्तवाला अर्थात् आधुदात्त है। ऐसे ही-गमनकृच्छ्रम्। (२) व्याहर॑णचिरम् । यहां प्रतिबन्धीवाची व्याहरण और चिर शब्दों का पूर्ववत् कर्मधारय तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से चिर शब्द उत्तरपद होने पर प्रतिबन्धीवाची व्याहरण पूर्वपद् प्रकृतिस्वर से रहता है। व्याहरण' शब्द ल्युट्-प्रत्ययान्त होने से लित् स्वर से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्तवाला अर्थात् मध्योदात्त है। ऐसे ही-व्याहरणकृच्छ्रम्। .
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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