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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् रिच' (७।४।५१) से 'तास्' के सकार का लोप होता है। ऐसे ही 'झ' के स्थान में 'रस्’ आदेश होने पर-कर्तारः।
(३) आस्तै। आस्+लट् । आस्+त। आस्+शप्+त। आस्+o+त। आस्ते।
यहां अनुदात्तेत्-आत्मनेपद 'आस् उपवेशने' (अदा०आ०) धातु से लट्' प्रत्यय है। इसके ल-सार्वधातुक 'त' प्रत्यय को इस सूत्र से अनुदात्त होता है। उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' (८।४।६५) से उसे स्वरित होता है। ऐसे ही-वस आच्छादने' (अदा०आ०) धातु से-वस्तै।
(४) सूतै। सू+लट् । सू+त। सू+शप्+त। सू+o+त। सूते।
यहां 'धूङ् प्राणिगर्भविमोचने' (अदा०आ०) इस डित् धातु से लट् प्रत्यय है। स्वर-कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-'शीङ् स्वप्ने (अदा०आ०) धातु से-शेते। . (५) तुदतः । तुद्+लट् । तुद्+तस् । तुद्+श+तस् । तुद्+अ+तस् । तुदतः ।
यहां तुद व्यथने (तु०प०) इस उपदेश में अ-वर्णवान् धातु से लट्' प्रत्यय है। इस अ-वर्णवान् धातु से उत्तर ल-सार्वधातुक तस्' प्रत्यय इस सूत्र से अनुदात्त होता है। शेष स्वर-कार्य पूर्ववत् है।
(६) नुदत: । 'णुद प्रेरणे' (तु०प०) पूर्ववत् । (७) पर्चत: । पच्+लट् । पच्+तस् । पच्+शप्+तस् । पच्+अ+तस् । पचतः ।
यहां डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) धातु से लट् प्रत्यय है। कर्तरि श' (३।१।६८) से शप' विकरण प्रत्यय होता है। इस अ-वर्णवान् धातु से उत्तर है ल-सार्वधातुक तस्' प्रत्यय अनुदात्त होता है। अनुदात्तौ सुपितौ' (३।१।४) से 'शप्' प्रत्यय भी अनुदात्त है। अत: 'धातो:' (६।१।१६२) से 'पच्' धातु को उदात्त होकर शप्' के अनुदात्त अकार को उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६५) से स्वरित होता है और स्वरित से उत्तर स्वरितात् संहितायामनुदात्तानाम् (१।२।३९) से अनुदात्त तस्' प्रत्यय एकश्रुति स्वर में रहता है। ऐसे ही 'पठ व्यक्तायां वाचिं' (भ्वा०प०) धातु से-पठतः।
हनुङ् और इङ् धातु का प्रतिषेध इसलिये किया है कि यहां ल-सार्वधातुक' को अनुदात्त न हो-हनुते, अधीते।
आधुदात्तप्रकरणम् आधुदात्त-विकल्प:
(३०) आदिः सिचोऽन्यतरस्याम् ।१८४। प०वि०-आदि: ११ सिच: ६।१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम् । अनु०-उदात्त इत्यनुवर्तते।