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(४) प॒रमा॒शुर्ना। यहां 'समासस्य' (६ | १ | २१७ ) से अन्तोदात्त स्वर होता है। ऐसे ही परमशुने, परमश्वभ्या॑म् ।
(५) येभ्येः । यत्+भ्यस् । य अ+भ्यः । य+भ्यस् | ये+भ्यस्। येभ्यः।
'यत्' शब्द 'सु' (१1१) प्रत्यय परे होने पर 'त्यदादीनाम:' ( ७/२/१०२ ) से अकार आदेश होने से अवर्णान्त है । 'बहुवचने झल्येत्' ( ७ । ३ । १०३ ) से एकार आदेश होता है । स्वर- कार्य 'गवा' के समान है। ऐसे ही तत्+भ्यस्= तेभ्यः । किम्+भ्यस्= केभ्यः । 'किम: क:' ( ७/२/१०३) से किम्' के स्थान में 'क' आदेश होता है।
(६) राजो | राज्+टा | राज्+आ। राजा।
यहां स्वर- कार्य 'गवा' के समान है।
(७) परमराजै । पूर्ववत् ।
(८) प्राञ्चो | स्वर- कार्य 'गवा' के समान है। ऐसे ही - प्राञ्चे ।
(९) क्रुञ्चो | स्वर- कार्य 'गवा' के समान है।
(१०) परमक्रुञ्च । यहां 'समासस्य' ( ६ । १ । २१७ ) से अन्तोदात्त स्वर होता है। (११) कृतो । स्वर- कार्य 'गवा' के समान है।
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(१२) परमकृत। यहां 'समासस्य' (६ । १ । २१७ ) से अन्तोदात्त स्वर होता है।
अन्तोदात्त-प्रतिषेध:
(२६) दिवो झल् | १८०।
प०वि०-दिव: ५ ।१ झल् १ । १ ।
अनु०-अन्त:, उदात्त:, विभक्ति:, न इति चानुवर्तते । अन्वयः - दिवो झलादिर्विभक्तिरन्तोदात्ता न ।
अर्थ:-दिव उत्तरा झलादिर्विभक्तिरन्तोदात्ता न भवति ।
उदा॰-द्युभ्या॑म्, द्युभिः॑ ।
आर्यभाषाः अर्थ- (दिवः) दिव् शब्द से उत्तर ( झल् ) झलादि ( विभक्तिः ) विभक्ति ( अन्त उदात्त:) अन्तोदात्त (न) नहीं होती है ।
उदा० - द्युभ्यम् । दो द्युलोकों से। द्युभिः । सब द्युलोकों से ।
सिद्धि-द्युभ्या॑म्। दिव्+भ्याम्। दि उ+भ्याम्। द् य् उ+भ्याम्। द्युभ्याम्। यहां 'दिव्' शब्द से 'भ्याम्' प्रत्यय है। 'सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्ति:' ( ६ । १ । १६२) तथा 'ऊडिदम्पदाद्यपपुप्रैरैद्युभ्य:' ( ६ । १ । १६५ ) से 'भ्यास्' विभक्ति को अन्तोदात्त स्वर प्राप्त था, इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। अत: यहां 'गवा' के समान स्वर- कार्य होता है । ऐसे ही-धुभि: ।