________________
१६८
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-अनित्यसमासे एकाचोऽन्तोदात्ताद् उत्तरपदाद् उत्तरा तृतीयादिर्विभक्तिर्विकल्पेनान्तोदात्ता भवति, पक्षे च ‘समासस्य' (६ ।१ ।२२३) इत्यन्तोदात्ता भवति।
उदा०-परमवाचा, परमवाचे। पक्षे-परमवाचा, परमवाचे । परमत्वचा, परमत्वचे। पक्षे-परमत्वा , परमत्वचे।
आर्यभाषा: अर्थ- (अनित्यसमासे) अनित्य समास में (एकाच:) एक अच्वाले (अन्तोदात्तात्) अन्तोदात्त (उत्तरपदात्) उत्तरपद से परे (तृतीयादिर्विभक्तिः) तृतीया आदि विभक्ति (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (अन्त-उदात्ता) अन्तोदात्त होती है और पक्ष में 'समासस्य' (६।१।२२३) से अन्तोदात्त होती है।
उदा०-परमवाचा । परमवाणी के द्वारा। परमवाचे। परमवाणी के लिये। पक्ष में-परमवाचा, परमवाचे । अर्थ पूर्ववत् है। परमत्वचा । परमत्वक् के द्वारा । परमत्वचे। परमत्वक् के लिये। पक्ष में-परमत्वों , परमत्वचें । अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-(१) परमत्वचा । परमत्वच्+टा। परमत्वच्+आ। परमवाचा।
यहां परम और वाक् शब्दों का सन्महत्परम०' (२।१।६०) से कर्मधारय समास है और यह महाविभाषा अधिकार से अनित्य समास है क्योंकि पक्ष में वाक्य भी बना रहता है। इसके उत्तरपद में वाक्' शब्द एकाच और अन्तोदात्त है। अत: 'परमवाक्' इस उक्त शब्द से उत्तर तृतीया आदि (टा) विभक्ति अन्तोदात्त होती है। 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (६।१।१५३) से शेष पद अनुदात्त होता है। ऐसे ही-परमवाचे। परमत्वचा, परमत्वचे।
(२) परमवाचा । यहां विकल्प पक्ष में परमवाक्' शब्द समासस्य (६।१।२२३) से अन्तोदात्त होता है। परमवाचा' इस स्थिति में उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६५) से अनुदात्त 'टा' को स्वरित आदेश होता है-परमवाचा । ऐसे ही-परमवाचे, परमत्वचा, परमत्वचे। अन्तोदात्ता
(१३) अञ्चेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्।१६७। प०वि०-अञ्चे: ५ १ छन्दसि ७१ असर्वनामस्थानम् १ ।१ । स०-न सर्वनामस्थानम्-असर्वनामस्थानम् (नञ्तत्पुरुषः) । अनु०-अन्त:, उदात्त:, विभक्तिरिति चानुवर्तते। अन्वयः-छन्दसि अञ्चेरसर्वनामस्थानं विभक्तिरन्तोदात्ता।