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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
पूर्व-स्वरप्रकरणम् परिभाषा
(१) अनुदात्तं पदमेकवर्जम्।१५५ । प०वि०-अनुदात्तम् १।१ पदम् १।१ एकवर्जम् १।१।
तद्धितवृत्ति:-अनुदात्ता अस्य सन्तीति-अनुदात्तम्। 'अर्शआदिभ्योऽच् (५ ।२।१२७) इति मत्वर्थीयोऽच् प्रत्ययः ।
स०-एक वर्जयित्वेति-एकवर्जम् (उपपदतत्पुरुष:) 'द्वितीयायां च' (३।४ ।५३) इति णमुल् प्रत्ययः।
अन्वय:-एकवर्जं पदम् अनुदात्तम्।
अर्थ:-अस्मिन् स्वरप्रकरणे यत्राऽन्य: स्वर उदात्त: स्वरितो वा विधीयते तत्रैकवर्ज पदमनुदात्तं भवतीत्येतदुपस्थितं द्रष्टव्यम् । परिभाषेयं स्वरविधानार्था । यथा वक्ष्यति 'धातो:' (६।१।१५६) धातोरन्तोदात्तो भवति । अत्र धातोरन्त्यमचं वर्जयित्वा परिशिष्टमनुदात्तं भवति।
उदा०-गोपायति, धूपायति।
आर्यभाषा: अर्थ-इस स्वर-प्रकरण में जहां कोई स्वर उदात्त वा स्वरित विधान किया जाता है वहां उस (एकवर्जम्) एक स्वर को छोड़कर शेष (पदम्) पद (अनुदात्तम्) अनुदात्त स्वरवाला होता है, यह जानना चाहिये। यह स्वरविधायिका परिभाषा है। जैसे पाणिनि मुनि कहेंगे-'धातोः' (६।१।१५६) अर्थात् धातु को अन्तोदात्त स्वर होता है। यहां धातु के अन्तिम अच्-वर्ण को छोड़कर शेष पद इस परिभाषा से अनुदात्त हो जाता है।
उदा०-गोपायति । वह रक्षा करता है। धूपायति । वह तपाता है।
सिद्धि-गोपायति । गुप्+आय। गोप्+आय। गोपाय+लट् । गोपाय+तिम् । गोपाय+शप्+ति। गोपाय+अ+ति। गोपायति।
यहां 'गुपू रक्षणे' (भ्वा०प०) धातु से 'गुपूधूपविच्छिपणिपनिभ्य आय:' (३।१।२८) से 'आय' प्रत्यय है। सनाद्यन्ता धातवः' (३।१।३२) से गोपाय' शब्द की धातु संज्ञा होती है। 'धातो:' (६।१ ।१५६) से धातु के अन्तिम अच्-वर्ण को अन्तोदात्त होकर इस परिभाषा सूत्र से शेष पद अनुदात्त होता है-गोपायति । उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६५) से उदात्त से उत्तर अनुदात्त को स्वरित हो जाता है-गोपायति । ऐसे ही 'धूप सन्तापे' (भ्वा०प०) धातु से-धूपायति।