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________________ षष्टाध्यायस्य प्रथमः पाद: १४३ (२) उपस्कृतम् । उप+कृ+क्त । उप+सुट्कृ +त। उप++कृ+त। उपस्कृत सु। उपस्कृतम्। यहां उप-उपसर्ग से उत्तर वैकृत और वाक्याध्याहार अर्थ में विद्यमान कृ' धातु परे होने पर इस सूत्र से क-वर्ण से पूर्व 'सुट' आगम होता है। सुट् (६७) किरतौ लवने। १३८ । प०वि०-किरतौ ७१ लवने ७।१।। अनु०-संहितायाम्, सुट्, कात्, पूर्वः, उपाद् इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायाम् उपाद् लवने किरतौ कात् पूर्व: सुट्। अर्थ:-संहितायां विषये उपाद् उत्तरस्माद् लवनेऽर्थे किरतौ परत: कात् पूर्व: सुडागमो भवति। उदा०-उपस्कारं मद्रका लुनन्ति । उपस्कारं काश्मीरा लुनन्ति । आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपात्) उप-उपसर्ग से उत्तर (लवने) काटने अर्थ में विद्यमान (किरतौ) 'कृ' धातु परे होने पर (कात्) क-वर्ण से (पूर्व:) पहले (सुट्) सुट् आगम होता है। उदा०-उपस्कारं मद्रका लुनन्ति । मद्र जनपद के लोग फैक-फेंककर काटते हैं उपस्कारं काश्मीरा लुनन्ति । काश्मीर जनपद के लोग फैक-फैककर काटते हैं (लावनी) करते हैं। सिद्धि-उपस्कारम् । उप+कृ+णमुल्। उप+कृ+अम्। उप+सुट्+कार+अम् । उप+स्+का+अम्। उपस्कारम्+सु। उपस्कारम्। यहां उप-उपसर्ग से उत्तर लवन अर्थ में विद्यमान 'कृ विक्षेपे' (तु०प०) धातु से कृत्यल्युटो बहुलम्' (३।३।११३) में बहुल-वचन से णमुल् प्रत्यय है। इस सूत्र से लवनार्थक 'कृ' धातु के क-वर्ण से पूर्व सुट् आगम होता है। अचो णिति' ७।२।११५) से 'कृ' धातु को वृद्धि (कार्) होती है। सुट् (६८) हिंसायां प्रतेश्च ।१३६ । प०वि०-हिंसायाम् ७।१ प्रते: ५ ।१ च अव्ययपदम् । अनु०-संहितायाम्, सुट, कात्, पूर्वः, उपाद्, किरताविति चानुवर्तते। अन्वयः-संहितायां प्रतेरुपाच्च हिंसायां किरतौ कात् पूर्वः सुट् ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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