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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
१३७ अर्थ:-संहितायां छन्दसि च विषये हलि परत: 'स्य:' इत्येतस्य बहुलं सुलोपो भवति।
उदा०-उत स्य वाजी क्षिपणिं तुरण्यति ग्रीवायां बद्धो अपि कक्ष सिनि (ऋ० ४।४०१४)। एष स्य पवत इन्द्र सोमः (ऋ० ९।९७।४६)। बहुलवचनान्न च भवति-यत्र स्यो निपतेत् ।
__ आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय और (छन्दसि) वेदविषय में (हलि) हल्-वर्ण परे होने पर (स्य:) स्य:' इस शब्द का (बहुलम्) प्रायश: (सुलोप:) 'सु' प्रत्यय का लोप होता है।
उदा०-उदाहरण संस्कृत-भाग में देख लेवें।
सिद्धि-(१) स्य वाजी । त्यत्+सु । त्य अ+स् । त्य+स् । स्यस्+वाजी। स्य०+वाजी। स्य वाजी।
यहां त्यत्' शब्द से 'स' प्रत्यय है। त्यदादीनाम:' (७।२।१०२) से त्यत' के तकार को अकार आदेश और उसे 'अतो गुणे (६।१।९५) से पूर्व-पर के स्थान में पूर्वरूप (अ) एकादेश होता है। तदो: स: सावनन्त्ययोः' (७/२।१०६) से त्यत्' के अनत्य तकार को सकार आदेश होता है। 'स्यस्+वाजी' इस स्थिति में इस सूत्र से हल वर्ण परे होने पर सु' प्रत्यय का लोप होता है। ऐसे ही-स्य पवते।
(२) स्यो निपतेत् । स्यस्+निपतेत्' ऐसी स्थिति में इस सूत्र से बहुल-वचन से 'सु' प्रत्यय का लोप नहीं होता है। अत: ससजुषो रुः' (८।२।६६) से सकार को रुत्व, हशि च' (६ ।१ ।१११) से रेफ को उत्व और 'आद्गुणः' (६।१।८५) से पूर्व-पर के स्थान में गुणरूप (ओ) एकादेश होता है। सु-लोपः (पादपूर्तिः)
(६२) सोऽचि लोपे चेत् पादपूरणम् ।१३३।
प०वि०-स: ११ (षष्ठ्यर्थे) अचि ७१ लोपे ७१ चेत् अव्ययपदम्, पादपूरणम् १।१।
स०-पादस्य पूरणम्-पादपूरणम् (षष्ठीतत्पुरुष:)। अनु०-संहितायाम्, सुलोप:, छन्दसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां छन्दसि अचि स: सुलोप:, लोपे चेत् पादपूरणम् ।
अर्थ:-संहितायां छन्दसि च विषयेऽचि परत: 'स:' इत्येतस्य सुलोपो भवति, लोपे सति चेत् पाद: पूर्यते।