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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
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आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि- विषय में (दिवः) दिव् के (पदान्तस्य) पदान्त वकार को (उत्) उकार आदेश होता है।
उदा०-दिवि कामो यस्य स: - द्युकाम: । दिव्= (द्यौ: ) स्वर्ग में काम = इच्छा जिसकी वह-द्युकाम। द्युमान् । द्युलोकवाला। विमलघु दिनम् । विमल द्युलोकवाला दिन। द्युभ्याम् । दो धुलोकों के द्वारा । द्युभि: । सब द्युलोकों के द्वारा ।
सिद्धि - (१) द्युकाम: । दिव्+ङि+काम+सु । दिव्+काम। दि उ+काम। द्युकाम+सु । धुकामः ।
यहां दिव् और काम शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे' (२/२/२४) से बहुव्रीहि समास है। ‘'दिव्' शब्द में अन्तवर्तिनी विभक्ति (ङि) का 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो:' (२1४/७१) सु लुक् हो जाता है, 'सुप्तिङन्तं पदम् (१।४।१४ ) से उसकी पदसंज्ञा मानकर इस सूत्र से 'दिव्' को उकार आदेश और वह 'अलोऽन्त्यस्य' (१1१1४१ ) से अन्त्य वकार के स्थान में होता है।
(२) द्युमान् । दिव्+मतुप् । दिव्+मत् । दि उ+मत्। द्युमत्+सु । द्यु म नुम् त्+सु । द्यु॒मन् त्+सु । द्युमान्त्+सु । द्युमान्त्+0 । द्युमान् । द्युमान् ।
यहां 'दिव्' शब्द से 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्' (५ 1२1९४ ) से 'मतुप्' प्रत्यय है । 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने (१।४।१७ ) से दिव् की पदसंज्ञा होकर इस सूत्र से दिव्' के वकार को उकार आदेश होता है । तत्पश्चात् 'इको यणचि' (६ /१/७५) से यण् आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(३) विमलद्यु । विमला द्यौ: ( आकाशम्) यस्य तद् विमलद्यु दिनम् । विमल+दिव्+सु । विमलदिव्+0 । विमलदि उ । विमलद्य् उ । विमलद्यु+सु । विमलद्यु+०। विमलद्यु ।
यहां 'विमलदिव्' शब्द से 'सु' प्रत्यय, स्वमोर्नपुंसकात्' (७ 1१ 1२३) से 'सु' का लुक् होकर इस सूत्र से वकार को उकार आदेश होता है । तत्पश्चात् 'इको यणचिं (६/१/७५) से यण् (य्) आदेश होता है।
(४) द्युभ्याम् । दिव्+भ्याम् । दिं उ+भ्याम् । द् य् उ+भ्याम्। द्युभ्याम् ।
यहां दिव्' शब्द से 'भ्याम् ' प्रत्यय है । 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने (१।४।१७) से 'दिव्' शब्द की पदसंज्ञा होकर इस सूत्र से वकार को उकार आदेश होता है। तत्पश्चात् पूर्ववत् यण् (य्) आदेश होता है। ऐसे ही 'भिस्' प्रत्यय करने पर - धुभि: ।
सु-लोप:
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(६०) एतत्तदोः सुलोपो कोरनञ्समासे हलि | १३१ | प०वि० - एतत्-तदो: ६ । २ सु-लोपः १।१ अको: ६ । २ अनञ्समासे ७।१ हलि ७।१।
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