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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अक:) अक्-वर्ण से उत्तर (अमि) अम् प्रत्यय परे होने पर (पूर्वपरयो:) पूर्व-पर के स्थान में (पूर्व:) पूर्वरूप (एक:) एकादेश होता है।
उदा०-वृक्षम् । वृक्ष को। प्लक्षम् । प्लक्ष (पिलखण) को। अग्निम् । अग्नि को। वायुम् । वायु को।
सिद्धि-वृक्षम् । वृक्ष+अम् । वृक्षम्।
यहां वृक्ष शब्द के अक्-वर्ण (अ) से उत्तर अम् प्रत्यय परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में इस सूत्र से पूर्वरूप (अ) एकादेश होता है। ऐसे ही-प्लक्षम्, अग्निम्, वायुम् । पूर्वरूप-एकादेशः
(३६) सम्प्रसारणाच्च।१०७। प०वि०-सम्प्रसारणात् ५।१ च अव्ययपदम्। अनु०-संहितायाम्, अचि, एकः, पूर्वपरयो:, पूर्व इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां सम्प्रसारणाच्चाऽचि पूर्वपरयोरेक: पूर्वः ।
अर्थ:-संहितायां विषये सम्प्रसारणाच्चोत्तरस्माद् अचि परत: पूर्वपरयो: स्थाने पूर्वरूप एकादेशो भवति ।
उदा०-(यजि:) इष्टम्। (वपि:) उप्तम् । (ग्रहि:) गृहीतम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (सम्प्रसारणात्) सम्प्रसारण से उत्तर (च) भी (अचि) अच् वर्ण परे होने पर (पूर्वपरयो:) पूर्व-पर के स्थान में (पूर्व:) पूर्वरूप (एक:) एकादेश होता है।
उदा०-(यजि) इष्टम् । यज्ञ किया। (स्वपि) सुप्तम्। शयन किया। (ग्रहि) गृहीतम् । ग्रहण किया।
सिद्धि-(१) इष्टम् । यज्+क्त। यज्+त। इ अ ज्+त। इज्+त। इष्+ट। इष्ट+सु। इष्टम्।
यहां यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु' (भ्वा०उ०) धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल में निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय है। वचिस्वपियजादीनां किति' (६।१।१५) से यज्' के यकार को सम्प्रसारण (इ) होता है। इस सूत्र से सम्प्रसारण (इ) से उत्तर अच् वर्ण (अ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में पूर्वरूप (इ) एकादेश होता है। व्रश्चभ्रस्ज०' (८।२।३६) से ज्' को षकार और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४०) से तकार को टुत्व टकार होता है।