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षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-उपेलयति। वह प्रेरणा करता है। प्रेलयति। वह प्रेरणा करता है। उपोषति । वह जलता है। प्रोषति । वह जलता है।
सिद्धि-(१) उपेलयति । उप+इल्+णिच् । उप+एल्+इ। उपेलि लट् । उपेलि+तिम्। उपेलि+शप्+ति। उपेलि+अ+ति। उपेलयति।
यहां उप-उपसर्गपूर्वक 'इल प्रेरणे (चु०उ०) धातु से सत्यापपाश०' (३।१।२५) से णिच् प्रत्यय है। 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से 'इल' को लघूपध गुण होता है। उप+एलि' इस स्थिति में अकारान्त उपसर्ग से उत्तर एडादि धातु परे होने पर इस सूत्र से पूर्व-पर के स्थान में पररूप (ए) एकादेश होता है। ऐसे ही-प्र+एलयति-प्रेलयति।
(२) उपोषति। उप+उ+लट् । उप+उण्+तिप् । उप+उण्+शप्+ति । उप+ओष्+अ+ति। उपोषति।
यहां उप-उपसर्ग पूर्वक उष दाहे' (भ्वा०प०) धातु से लट् प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'उष्' को लघूपध गुण होता है। उप+ओषति' इस स्थिति में अकारान्त उपसर्ग से उत्तर एडादि धातु परे होने पर इस सूत्र से पूर्व-पर के स्थान में पररूप (ओ) एकादेश होता है। ऐसे ही-प्र+ओषति-प्रोषति । पररूप-एकादेशः
(२४) ओमाङोश्च।६५। प०वि०-ओम्-आडो: ७।२ च अव्ययपदम् ।
स०-ओम् च आङ् च तौ-ओमाडौ, तयोः-ओमाङोः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयो:, आत्, पररूपम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् आद् ओमाङोश्च पूर्वपरयो: पररूपमेकः ।
अर्थ:-संहितायां विषयेऽवर्णाद् ओमि आङि च परत: पूर्वपरयो: स्थाने पररूपमेकादेशो भवति।
उदा०-(ओम्) कन्योमित्यवोचत्। (आङ्) आङ्+ऊढा ओढा। अद्य+ओढा अद्योढा। कदा+ओढा कदोढा । तदा+ओढा-तदोढा।
__ आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (आत्) अ-वर्ण से उत्तर (ओमाडो:) ओम् और आङ् शब्द परे होने पर (पूर्वपरयोः) पूर्व-पर के स्थान में (पररूपम्) पररूप (एक:) एकादेश होता है।