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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
विशेषः सुलेमान के समानान्तर श्रीनगर की पर्वत श्रृंखला है जो झोब (वैदिक नाम - यहवती) नदी के पूर्व है एवं दोनों के पीछे टोबा और काकड़ की श्रृंखलायें हैं । पर्वतों की यह तिहरी दीवार ठीक ही 'त्रिककुत्' कहलाती थी (पं० जयचन्द्र विद्यालंकार - कृत भारतभूमि पृ० १२९)।
लोपादेश:
४६८
(३६) उद्विभ्यां काकुदस्य । १४८ ।
प०वि० - उद्विभ्याम् ५ | २ काकुदस्य ६ । १ ।
स०- उच्च विश्च तौ - उद्वी, ताभ्याम् - उद्विभ्याम् (इतरेतर
योगद्वन्द्वः) ।
अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, लोप इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - बहुव्रीहावुद्विभ्यां काकुदस्य समासान्तो लोप: । अर्थ :- बहुव्रीहौ समासे उद्विभ्यां परस्य काकुदशब्दस्य समासान्तो लोपादेशो भवति ।
उदा०-(उत्) उद्गतं काकुदं यस्य सः - उत्काकुत् । (वि) विगतं काकुदं यस्य सः-विकाकुत्। काकुदम्=तालु।
आर्यभाषाः अर्थ- (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (उद्विभ्याम्) उत् और वि शब्दों से परे - ( काकुदस्य) काकुद शब्द को (समासान्तः ) समास का अवयव ( लोपः ) लोपादेश होता है।
उदा०-1
- ( उत्) उत्-उठा हुआ है काकुद = तालु जिसका वह - उत्काकुत् । (वि) वि= दबा हुआ काकुद= तालु जिसका वह विकाकुत् ।
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सिद्धि-उत्काकुत्। यहां उत् और काकुद शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है 'उत्काकुद' के 'काकुद' शब्द को इस सूत्र से समासान्त लोपादेश निपातित है और वह 'अलोऽन्त्यस्य' (१।१।५२) से 'काकुद' शब्द के अन्त्य अकार का लोप होता है । 'वाऽवसाने' (८/४/५६) से 'द्' को चर् 'त्' होता है। समासान्त की बाधा से 'आदेः परस्य ' (8181५४) से प्राप्त 'काकुद' के आदि ककार को लोपादेश नहीं होता है ।
लोपादेश-विकल्पः
(३७) पूर्णाद् विभाषा । १४६ ।
प०वि०-पूर्णात् ५ ।१ विभाषा १ । १ ।
अनु० - समासान्ता:, बहुव्रीहौ, लोप:, काकुदस्य इति चानुवर्तते ।
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