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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् पररूप एकादेश होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में बहुव्रीहेरूधसो ङीष् (४।१।२५) से डीए प्रत्यय और 'अल्लोपोऽन:' (६।४।१३४) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-घटोनी। अनङ्-आदेश:
(२०) धनुषश्च ।१३२। प०वि०-धनुष: ६१ च अव्ययपदम् । अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, अनङ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ धनुषश्च समासान्तोऽनङ्।
अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे धनु:शब्दान्तस्य प्रातिपदिकस्य स्थाने समासान्तोऽनङ् आदेशो भवति।।
उदा०-शार्गं धनुर्यस्य सः-शार्गधन्वा । गाण्डीवधन्वा । पुष्पधन्वा । अधिज्यधन्वा।
आर्यभाषा अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (धनुष:) धनुष् शब्द जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक के स्थान में (समासान्तः) समास का अवयव (अनङ्) अनङ् आदेश होता है।
__उदा०-शाम-सींग का बना हुआ है धनुष् जिसका वह-शाङ्गधन्वा विष्णु। गाण्डीव-ग्रन्थिविशेषवाला धनुष है जिसका वह-गाण्डीवधन्वा अर्जुन। पुष्प का है धनुष जिसका वह-पुष्पधन्वा कामदेव । अधिज्य=ज्या (डोरी) जिसकी चढ़ी हुई है ऐसा धनुष् है वह-अधिज्यधन्वा।
___ सिद्धि-शाङ्गधन्वा । शाङ्ग+सु+धनुष्+सु। शाङ्ग+धनुष् । शाङ्गधनु अनङ् । शार्ङ्गधन्वन्+ सु । शाङ्गधन्वान्+सु । शाङ्गधन्वान्+० / शाङ्गधन्वा ।
यहां शार्ग और धनुष् शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। शाङ्गधनुष् शब्द को इस सूत्र से पूर्ववत् अनङ् आदेश होता है। ‘इको यणचि' (६।१।७६) से यण्-आदेश, सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' (६।४।८) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ, 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्' (६।१।६७) से 'सु' का लोप और नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से नकार का लोप होता है। ऐसे ही-गाण्डीवधन्वा, पुष्पधन्वा, अधिज्यधन्वा । अनङ्-आदेशविकल्प:
(२१) वा संज्ञायाम् ।१३३। प०वि०-वा अव्ययपदम्, संज्ञायाम् ७।१। अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, अनङ्, धनुष इति चानुवर्तते।
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