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________________ स । पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः अन्वय:-यथायोगं विभक्तिसमर्थाद् अध्यर्धपूर्वाद् द्विगोश्च पणपादमाषशताद् आ-अर्हाद् यत् । अर्थ:-यथायोगं विभक्तिसमर्थेभ्योऽध्यर्धपूर्वेभ्यो द्विगुसंज्ञकेभ्यश्च पणपादमाषशतेभ्य: प्रातिपदिकेभ्य आ-अहीयेष्वर्थेषु यत् प्रत्ययो भवति । उदा०-(पण:) अध्यर्धपूर्व:-अध्यर्धपणेन क्रीतम्-अध्यर्धपण्यम् । द्विगु:द्विपणेन क्रीतम्-द्विपण्यम्। त्रिपण्यम्। (पाद:) अध्यर्धपूर्व:-अध्यर्धपादेन क्रीतम्-अध्यर्धपाद्यम्। द्विगु:-द्विपादेन क्रीतम्-द्विपाद्यम्। त्रिपाद्यम् । (माष:) अध्यर्धपूर्व:-अध्यर्धमाषेण क्रीतम्-अध्यर्धमाष्यम् । द्विगु:-द्विमाषण क्रीतम्-द्विमाष्यम्। त्रिमाष्यम्। (शतम्) अध्यर्धपूर्वम्-अध्यर्धशतेन क्रीतम्-अध्यर्धशत्यम् । द्विगु:-द्विशतेन क्रीतम्-द्विशत्यम्। त्रिशत्यम्। आर्यभाषा: अर्थ-यथायोग विभक्ति-समर्थ (अध्यर्धपूर्वात्) अध्यर्ध पूर्ववाले और (द्विगो:) द्विगुसंज्ञक (पणपादमाषशतात्) पण, पाद, माष, शत प्रातिपदिकों से (आ-अत्)ि आ-अीय अर्थों में (यत्) यत् प्रत्यय होता है। उदा०-(पण) अध्यर्धपण डेढ पण से क्रीत-खरीदा हुआ-अध्यर्धपण्य। द्विपण दो पणों से क्रीत-द्विपण्य। त्रिपण-तीन पणों से क्रीत-त्रिपण्य। (पाद) अध्यर्धपाद डेढ पाद से क्रीत-अध्यर्धपाद्य । द्विपाद-दो पादों से क्रीत-द्विपाद्य । त्रिपाद-तीन पादों से क्रीत-त्रिपाद्य। (माष) अध्यर्धमाष=डेढ माष से क्रीत-अध्यर्धमाष्य। द्विमाष=दो माषों से क्रीत-द्विमाष्य। त्रिमाण-तीन माषों से क्रीत-त्रिमाष्य। (शत) अध्यर्धशत-डेढ सौ कार्षापणों से क्रीत-अध्यर्धशत्य। द्विशत=दो सौ कार्षापणों से क्रीत-द्विशत्य। त्रिशत-तीन सौ कार्षापणों से क्रीत-त्रिशत्य। सिद्धि-अध्यर्धपण्यम्। अध्यर्धपण+टा+यत्। अध्यर्धपण+य। अध्यर्धपण्य+सु। अध्यर्धपण्यम्। यहां तृतीया-समर्थ, अध्यर्धपूर्वक 'अध्यर्धपण' शब्द से आ-अीय क्रीत अर्थ में इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। विशेष: मुद्राओं का नामकरण-वैदिक युग में तोल के आधार पर मुद्राओं (सिक्का) का नामकरण किया गया। निष्क तो स्वर्ण-मुद्रा का नाम था किन्तु 'शतमान' नाम तोल के आधार पर (सौ रत्ती से) ही निश्चित किया गया। उसके चौथाई भाग को पाद (चौथा भाग) कहा गया। प्राचीन नाम कार्षापण भी तोल के नियम से रखा गया। कर्ष बीज-रत्ती (चिरमठी) का नाम था अत: कर्ष द्वारा तोले जानेवाले सिक्के को (कर्ष+पण) कार्षापण कहा गया। ये ३२ रत्ती चांदी के होते थे। अर्धपण १६ रत्ती का, पाद ८ रत्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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