SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम् अर्थ :- बहुव्रीहौ समासे वर्तमानाभ्यां स्वाङ्गवाचिभ्यां सक्थिअक्ष्यन्ताभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां समासान्तः षच् प्रत्ययो भवति । उदा०-(सक्थि) दीर्घं सक्थि यस्य स: - दीर्घसक्थ: । (अक्षि) कल्याणे अक्षिणी यस्य स: - कल्याणाक्षः । लोहिताक्षः । विशालाक्ष: । ४७० आर्यभाषाः अर्थ - ( बहुव्रीहौ ) बहुव्रीहि समास में विद्यमान ( स्वाङ्गात्) स्वाङ्गवाची (सक्थ्यक्ष्णोः ) सक्थि और अक्षि शब्द जिनके अन्त में हैं उन प्रातिपदिकों से (समासान्तः) समास का अवयव ( षच् ) षच् प्रत्यय होता है । उदा०- - (सक्थि) दीर्घ है सक्थि= जंघा जिसकी वह - दीर्घसक्थ । (अक्षि) कल्याणकारी हैं अक्षि = आंखें जिसकी वह कल्याणाक्ष । लोहित = लाल हैं अक्षि जिसकी वह - लोहिताक्ष । विशाल हैं अक्षि जिसकी वह - विशालाक्ष । सिद्धि - दीर्घसक्थम् । दीर्घ + सु + सक्थि+सु । दीर्घ + सक्थि । दीर्घसक्थि + षच् । दीर्घसक्थ्+अ । दीर्घसक्थ+सु । दीर्घसक्थः । यहां दीर्घ और सक्थि शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे ( २।२।२४ ) से बहुव्रीहि समास है। 'दीर्घसक्थि' शब्द से इस सूत्र से समासान्त षच्' प्रत्यय है । 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही 'अक्षि' शब्द से - कल्याणाक्षः, लोहिताक्षः, विशालाक्षः । विशेषः (१) 'टच्' प्रत्यय की अनुवृत्ति में षच् प्रत्यय का विधान स्वर-भेद के लिये किया गया है । 'टच्' प्रत्यय के टित् होने से स्त्रीत्व - विवक्षा में 'टिड्ढाणञ्०' (४।१।१५) से ङीप् प्रत्यय होता है । ङीप् प्रत्यय के पित् होने से 'अनुदात्तौ सुप्ति ( ३ । १ । ४) से अनुदात्त स्वर होता है । षच् प्रत्यय के षित होने से 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१) से स्त्रीत्व-विवक्षा में ङीष् प्रत्यय होता है । 'ङीष्' प्रत्यय का 'आद्युदात्तश्च' (३ 1१1३) से आद्युदात्त स्वर होता है । (२) 'बहुव्रीहौं' पद की अनुवृत्ति इस पाद की समाप्ति पर्यन्त है। षच् (२) अङ्गुलेर्दारुणि ॥ ११४ ॥ प०वि० - अङ्गुलेः ५ ।१ दारुणि ७ । १ । अनु० - समासान्ता:, बहुव्रीहौ षच् इति चानुवर्तते । अन्वयः-बहुव्रीहौ समासे दारुणि चार्थे वर्तमानाद् अङ्गुलिशब्दान्तात् प्रातिपदिकात् समासान्तः षच् प्रत्ययो भवति । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy