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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः स्थान में 'अक' आदेश और 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
(२) त्रिंशक: । यहां त्रिंशत्' शब्द से पूर्ववत् ड्वुन्' प्रत्यय और प्रत्यय के डित् होने से वा०-'डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (६।४।१४३) से त्रिंशत् के टि-भाग (अत्) का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। टिठन्
(७) कंसाट्टिठन्।२५। प०वि०-कंसात् ५ ।१ टिठन् ११ । अनु०-आ-अर्हात् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-यथायोगं विभक्तिसमर्थात् कंसाद् आ-अर्हाद् टिठन्।
अर्थ:-यथायोगं विभक्तिसमर्थात् कंस-शब्दात् प्रातिपदिकाद् आ-अहीयेष्वर्थेषु टिठन् प्रत्ययो भवति। कंसशब्दस्य परिमाणवाचित्वादयं ढञोऽपवाद: ।
उदा०-कंसेन क्रीत:-कंसिकः । स्त्री चेत्-कंसिकी शाटिका ।
आर्यभाषा: अर्थ-यथायोग विभक्ति-समर्थ (कंसात्) कंस प्रातिपदिक से (आ-अहत्)ि आ-अहीय अर्थों में (टिठन्) टिठन् प्रत्यय होता है।
'उदा०-कंस (पांच सेर) से क्रीत-कसिक: पट । कंस से क्रीत-कसिकी शाटिका (साड़ी)।
सिद्धि-कसिकः । कंस+टा+टिठन् । कंस्+इक। कंसिक+सु । कसिकः ।
यहां तृतीया-समर्थ, परिमाणवाची कंस' शब्द से आ-अहीय क्रीत-अर्थ में इस सूत्र से 'टिठन्' प्रत्यय है। पूर्ववत् 'ह' के स्थान में 'इक' आदेश होता है। 'टिठन्' प्रत्यय में इकार उच्चारणार्थ है। प्रत्यय के टित् होने से स्त्रीत्व-विवक्षा में टिडढाणञ्' (४।१।१५) से डीप् प्रत्यय होता है-कसिकी।
विशेष: कंस-चरक के अनुसार कंस' आठ प्रस्थ या दो आढक के बराबर था। वह अर्थशास्त्र की तालिका के अनुसार पांच सेर और चरक की तालिका के अनुसार ६६ सेर के बराबर हुआ (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २४५) । अञ्-विकल्प:
(८) शूर्पादञन्यतरस्याम् ।२६। प०वि०-शूर्पात् ५।१ अञ् १११ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम् । अनु०-आ-अर्हात् इत्यनुवर्तते।
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