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________________ - से अंग को आदिवृद्धि और है । ऐसे ही - भारुजिक: । ठच-विकल्प: पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः ३५६ 'यस्येति च' (६ । ४ । १४८) से अंग के इकार का लोप होता (१४) एकशालायाष्ठजन्यतरस्याम् । १०६ । प०वि० - एकशालायाः ५ | १ ठच् १ । १ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम् । स०-एका चासौ शाला-एकशाला, तस्या:- एकशालायाः ( कर्मधारयः ) । अनु० - इवे इत्यनुवर्तते । अन्वयः - इवे एकशालाया अन्यतरस्यां ठच् । अर्थ:- इवार्थे वर्तमानाद् एकशालाशब्दात् प्रातिपदिकाद् विकल्पेन ठच् प्रत्ययो भवति, पक्षे चानन्तरष्ठक् प्रत्ययो भवति । उदा०-एकशाला इव एकशालिकं गृहम् (ठच्) । ऐकशालिकं गृहम् ( ठक्) । आर्यभाषाः अर्थ- (इवे ) सदृश अर्थ में विद्यमान ( एकशालायाः) एकशाला प्रातिपदिक से (अन्यतरस्याम्) विकल्प से ( ठच् ) ठच् प्रत्यय होता है और पक्ष में अनन्तर= समीपस्थ ठक् प्रत्यय होता है। उदा०-एकशाला=एक कमरे के समान एकशालिक घर ( ठच्) । ऐकशालिक घर (ठक्)। सिद्धि - (१) एकशालिकम् । एकशाला+सु+ठच् । एकशाल्+इक। एकशालिक+सु । एकशालिकम् । यहां इव अर्थ में विद्यमान 'एकशाला' शब्द से इस सूत्र से 'ठच्' प्रत्यय है। 'ठस्येक:' ( ७/३/५०) से 'ठू' के स्थान में 'इक्' आदेश और 'यस्येति च' (६/४ 1१४८) से अंग के आकार का लोप होता है। (२) ऐकशालिकम्। यहां पूर्वोक्त 'एकशाला' शब्द से विकल्प पक्ष में 'ठक्' प्रत्यय है । 'किति च' (७ । २ । ११८) से अंग को आदिवृद्धि होती है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ईकक् - (१५) कर्कलोहितादीकक् । ११० । प०वि०-कर्क-लोहितात् ५ । १ ईकक् १ । १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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