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________________ २१५ पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः स०-इन्द्रस्य लिङ्गम्-इन्द्रलिङ्गम् (षष्ठीतत्पुरुषः)। इन्द्रेण दृष्टम्-इन्द्रदृष्टम् (तृतीयातत्पुरुषः)। इन्द्रेण सृष्टम्-इन्द्रसृष्टम् (तृतीयातत्पुरुषः)। इन्द्रेण जुष्टम्-इन्द्रजुष्टम् (तृतीयातत्पुरुष:)। इन्द्रेण दत्तम्-इन्द्रदत्तम् (तृतीयातत्पुरुषः)। अर्थ:-इन्द्रियमिति पदम् इन्द्रलिङ्गादिष्वर्थेषु विकल्पेन निपात्यते। उदा०-इन्द्रस्य लिङ्गम्-इन्द्रियम् । इन्द्र आत्मा स चक्षुरादिना लिङ्गेन (करणेन) अनुमीयते, न हि अकर्तृकं करणं भवति। इन्द्रेण दृष्टम्-इन्द्रियम् । आत्मना दृष्टमित्यर्थः । इन्द्रेण सृष्टम्-इन्द्रियम् । आत्मना सृष्टम्, तत्कृतेन शुभाशुभकर्मणा समुत्पन्नमित्यर्थः । इन्द्रेण जुष्टम्इन्द्रियम् । आत्मना जुष्टम् सेवितम्, तद्द्वारा विज्ञानोत्पत्तिभावात् । इन्द्रेण दत्तम्-इन्द्रियम् । आत्मना यथायथं ग्रहणाय विषयेभ्यो दत्तमित्यर्थः । अथवा-इन्द्रेण ईश्वरेणात्मने दत्तम् । आर्यभाषा: अर्थ-(इन्द्रियम्) इन्द्रिय (इति) यह पद (इन्द्रलिङ्गम्०) इन्द्रलिग, इन्द्रदृष्ट, इन्द्रसृष्ट, इन्द्रजुष्ट, इन्द्रदत्त इन अर्थों में (वा) विकल्प से निपातित है। उदा०-इन्द्र का लिङ्ग-इन्द्रिय । इन्द्र अर्थात् आत्मा और उसका जो लिङ्ग (चिह्न) है वह इन्द्रिय कहाता है। लिङ्गदर्शन से लिङ्गी का अनुमान किया जाता है। इन्द्र कर्ता है और चक्षु आदि इन्द्रियां उसका करण हैं। कर्ता के विना करण सम्भव नहीं है। इन्द्र के द्वारा दृष्ट-इन्द्रिय । इन्द्र अर्थात् आत्मा के द्वारा दृष्ट होने से चक्षु आदि इन्द्रिय कहाती हैं। इन्द्र के द्वारा सृष्ट-इन्द्रिय । इन्द्र अर्थात् आत्मा के द्वारा किये गये शुभ-अशुभ कर्मों के कारण उत्पन्न होने से चक्षु आदि इन्द्रिय कहाती हैं। इन्द्र के द्वारा जुष्ट-इन्द्रिय । इन्द्र अर्थात् आत्मा के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति के लिये इनका सेवन किया जाता है इसलिये चक्षु आदि इन्द्रिय कहाती हैं। इन्द्र के द्वारा दत्त-इन्द्रिय । इन्द्र अर्थात् आत्मा के द्वारा ये वस्तु को यथायथ ग्रहण करने के लिये विषयों को प्रदान की गई हैं अत: चक्षु आदि इन्द्रिय कहाती हैं। अथवा इन्द्र-ईश्वर ने आत्मा के उपयोग के लिये इन्हें प्रदान किया है इसलिये चक्षु आदि इन्द्रिय कहाती हैं। 'इन्द्रिय' शब्द चक्षु आदि करणों के लिये रूढ है। इसकी व्युत्पत्ति के अनेक प्रकार यहां दशयि गये हैं, अत: इस प्रकार से अन्य व्युत्पत्ति भी संभव है। सूत्र में वा' पद का ग्रहण 'इन्द्रलिङ्ग' आदि विकल्प अर्थों का द्योतक है। सिद्धि-इन्द्रियम् । इन्द्र+डस्/टा+घच्। इन्द्र+इय। इन्द्रिय+सु। इन्द्रियम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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