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पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः
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उदा०- ( सूक्तम्) अच्छावाकशब्दोऽस्मिन्नस्तीति- अच्छावाकीयं सूक्तम्। मित्रावरुणीयं सूक्तम् । (साम) यज्ञायज्ञाशब्दोऽस्मिन्नस्तीतियज्ञायज्ञीयं साम । वारवन्तीयं साम ।
आर्यभाषाः अर्थ-{तत्} प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (मतौ) मतुप् प्रत्यय के अर्थ में (छः) छ प्रत्यय होता है (सूक्तसाम्नोः) यदि वहां सूक्त और साम अर्थ अभिधेय हो । उदा०- ( सूक्त) अच्छावाक - शब्द इसमें है यह अच्छावाकीय सूक्त। मित्रावरुण शब्द इसमें है यह - मित्रावरुणीय सूक्त । (साम) यज्ञायज्ञा शब्द इसमें है यह - यज्ञायज्ञीय साम । वारवन्त शब्द इसमें है य- वारवन्तीय साम ।
सिद्धि-अच्छावाकीयम् । अच्छावाक+सु+छ। अच्छावाक्+ईय। अच्छावाकीय+सु । अच्छावाकीयम् ।
यहां प्रथमा-समर्थ ‘अच्छावाक' शब्द से मतुप् (सप्तमी विभक्ति) के अर्थ में तथा 'अर्थ' अभिधेय में इस सूत्र से 'छ' प्रत्यय है, 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश और 'यस्येति च' (६ । ४ । १४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही - मित्रावरुणीयम्, यज्ञायज्ञीयम्, वारवन्तीयम् ।
सूक्त
(क)
विशेष: (१) अच्छावाकीय तथा मित्रावरुणीय सूक्त के उदाहरण निम्नलिखित हैंअच्छावाक शब्द ऋग्वेद के खिल में वैदिक पदानुक्रम कोष के अनुसार (41७1५1१०) पर है। जर्मनी से छपे खिलानि में उक्त पते पर प्रैष में अच्छावाक पद है परन्तु वहां सूक्तविभाग नहीं है।
(ख) विश्वेषां वः सतां ज्येष्ठतमा गीर्भिर्मित्रावरुणा वावृधध्यै । सयां रश्मेव यमतुर्यमिष्ठा द्वा जनाँ असमा बाहुभिः स्वैः । । (ऋ० ६/६७|१)
(२) यज्ञायज्ञीय तथा वारतन्तीय साम के उदाहरण निम्नलिखित हैं(क) यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे ।
प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रं न श सिषम् | (साम० १ । १ । ४ 1१) (ख) अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः । सम्राजन्तमध्वराणाम् ।। (ऋ०१।२७।१)
छस्य लुक्
(२) अध्यायानुवाकयोर्लुक् ॥ ६० । प०वि० - अध्याय - अनुवाकयोः ७ । २ लुक् १ । १ । स०-अध्यायश्च अनुवाकश्च तौ अध्यायानुवाकौ तयो: - अध्यायानु
वाकयोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
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