________________
१५७
वित्तीय
पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः अन्वय:-तस्य पक्षाद् मूलं ति:।।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् पक्ष-शब्दात् प्रातिपदिकाद् मूलमित्यस्मिन्नर्थे ति: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-पक्षस्य मूलम्-पक्षति: प्रतिपदा ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (पक्षात्) पक्ष प्रातिपदिक से (मूलम्) मूल अर्थ में (ति:) ति प्रत्यय होता है।
उदा०-पक्ष का मूल-पक्षति प्रतिपदा। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष की मूलतिथि- पक्षति' (पड़वा) कहाती है। संस्कृत साहित्य में पक्षी के पंख के मूल-स्थान को भी पक्षति' कहा गया है।
सिद्धि-पक्षति: । पक्ष+डस्+ति। पक्ष+ति। पक्षति+सु। पक्षतिः । यहां षष्ठी-समर्थ 'पक्ष' शब्द से मूल अर्थ में इस सूत्र से 'ति' प्रत्यय है।
वित्तार्थप्रत्ययविधिः चुञ्चुप्+चणप्
(१) तेन वित्तश्चुञ्चुपचणपौ।२६ । प०वि०-तेन ३।१ वित्त: ११ चुचुप्-चणपौ १।२ । स०-चुचुप् च चणप् च तौ-चुञ्चुप्चणपौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अन्वय:-तेन प्रातिपदिकाद् वित्तश्चुचुपचणपौ।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकाद् वित्त इत्यस्मिन्नर्थे चुञ्चुपचणपौ प्रत्ययौ भवत: । वित्त: प्रतीत:, प्रसिद्ध इत्यर्थः ।
उदा०-विद्यया वित्त:-विद्याचुञ्चुः (चुचुप्) । विद्याचण: (चणप्) ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तेन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (वित्त:) प्रसिद्ध अर्थ में (चुचुपचणपौ) चुचुप और चणप् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-विद्या से जो वित्त प्रसिद्ध है वह-विद्याचुच्चु (चुचुप्) । विद्याचण: (चणप्) ।
सिद्धि-(१) विद्याचुञ्चुः । विद्या+टा+चुचुप् । विद्या+चुञ्चु। विद्याचुञ्चु+सु । विद्याचुञ्चुः।
यहां तृतीया-समर्थ विद्या' शब्द से वित्त अर्थ में 'चुञ्चुप् प्रत्यय हैं। चुञ्चुप्' प्रत्यय के आदि-चकार की 'चुटू' (१।३।७) से इत्-संज्ञा नहीं होती है क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org