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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् स०-सर्वं च तच्चर्म इति सर्वचर्म, तस्मात्-सर्वचर्मण: 'पूर्वकालैकसर्वजरतपुराणनवकेवला: समानाधिकरणेन' (२।१।४९) इति कर्मधारयः । खश्च खञ् च तौ खखञौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अत्र 'कृत:' इति प्रत्ययार्थसामर्थ्येन तृतीयासमर्थविभक्तिर्गृह्यते।
अन्वय:-तृतीयासमर्थात् सर्वचर्मण: कृत: खखनौ ।
अर्थ:-तृतीयासमर्थात् सर्वचर्मन्-शब्दात् प्रातिपदिकात् कृत इत्यस्मिन्नर्थे खखञौ प्रत्ययौ भवतः।
उदा०-सर्वचर्मणा कृत:-सर्वचर्मीण: (ख:)। सार्वचर्मीण: (खञ्) ।
आर्यभाषा: अर्थ-तृतीया-समर्थ (सर्वचर्मण:) सर्वचर्मन् प्रातिपदिक से (कृतः) बनाया गया अर्थ में (खखौ) ख और खञ् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-सर्वचर्म-पूरे चमड़े से बनाया हुआ-सर्वचर्माण (ख)। सार्वचर्मीण।
सिद्धि-(१) सर्वचर्मीणः । सर्वचर्मन्+टा+ख। सर्वचम्+ईन। सर्वचर्मीण+सु। सर्वचर्मीणः।
यहां तृतीया-समर्थ सर्वचर्मन्’ शब्द से कृत-अर्थ में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ख' के स्थान में इन्' आदेश और नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से अंग के टि-भाग (अन्) का लोप होता है। 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है।
(२) सार्वचर्मीणः। यहां 'सर्वचन्' शब्द से 'खञ्' प्रत्यय करने पर तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: (१) पूरे चमड़े का बना हुआ इस अर्थ में सर्वचर्मीण या सार्वचर्माण प्रयोग भी चलता था। इस शब्द का प्रयोग उस वस्तु के लिये होता था जिसके बनाने में गाय-भैंस के चमड़े का पूरा थान लग जाये। जैसे प्राय: कुएँ से पानी उठाने के लिये गोट, चरस या पुर के बनाने में ऐसा किया जाता है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २२७)।
(२) काशिकाकार पं० जयादित्य ने 'सर्व' शब्द का कृत' प्रत्ययार्थ के साथ सम्बन्ध बतलाया है- सर्वश्चर्मणा कृतः'। यदि सर्व' शब्द का कृत' शब्द के साथ सम्बन्ध माना जाये तो सर्वचर्मन्’ शब्द से सामर्थ्याभाव से समास नहीं हो सकता अत: उन्होंने यहां असमर्थ-समास की कल्पना की है जो कि सूत्ररचना के विरुद्ध प्रतीत होती है। यहां सर्वचर्म' का अर्थ पूरा चमड़ा है, जैसा कि ऊपर लिखा गया है, चमड़े का पूरा बना हुआ नहीं। इस प्रकरण में आगे भी सर्वादि शब्दों से प्रत्यय-विधान किया गया है।
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