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________________ ६० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में ईय् आदेश और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-इदावत्सरीयम् । विशेष: वर्ष-अर्थशास्त्र में पांच वर्षों के एक युग का उल्लेख है जिसमें हर एक वर्ष का अलग-अलग नाम होता था। इनमें से इद्वत्सर, इदावत्सर, संवत्सर, परिवत्सर का पाणिनि में भी उल्लेख है ।५।१।९१-९२) (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० १७८)। ख:+छ: (८) सम्परिपूर्वात् ख च।६१/ प०वि०-सम्परिपूर्वात् ५।१ ख १।१ (सु-लुक्) च अव्ययपदम् । स०-सम् च परिश्च तौ सम्परी, सम्परी पूर्वी यस्य तत्-सम्परिपूर्वम्, तस्मात्-सम्परिपूर्वात् (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहि:)। अनु०-कालात्, तेन, निर्वृत्तम्, तम्, अधीष्ट:, भृत:, भूत:, भावी, वत्सरान्तात्, छ:, छन्दसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि तेन, तम् सम्परिपूर्वाद् वत्सरान्ताद् निर्वृत्तम् अधीष्टो भृतो भूतो भावी ख:, छश्च। अर्थ:-छन्दसि विषये तेन इति तृतीयासमर्थात् तथा तम् इति द्वितीयासमर्थात् सम्परिपूर्वाद् वत्सरान्तात् प्रातिपदिकाद् निर्वृत्तम् अधीष्टो भृतो भूतो भावी वा इत्येतेषु पञ्चस्वर्थेषु ख:, छश्च प्रत्ययो भवति । उदा०- (सम्) संवत्सरेण निवृत्तम्-संवत्सरीणम् (ख:) । संवत्सरीयम् (छ:)। संवत्सरम् अधीष्टो भृतो भूतो भावी वा संवत्सरीण: (ख:)। संवत्सरीय: (छ:)। संवत्सरीणा: (को०सं० ४।३।१३।४)। (परि) परिवत्सरेण निवृत्तम्-परिवत्सरीणम् (ख:)। परिवत्सरीयः (छ:)। परिवत्सरीणम् (ऋ० ७।१०।३।८) । परिवत्सरीया (का०सं० १३ ।१५) । आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में तिन) तृतीया-समर्थ तथा (तम्) द्वितीया-समर्थ (सम्परिपूर्वात्) सम्, परि पूर्वक (वत्सरान्तात्) वत्सर जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक से (निर्वृत्तम् अधीष्टो भृतो भूतो भावी) निर्वृत्त, अधीष्ट, भृत, भूत वा भावी इन पांच अर्थों में (ख:) ख (च) और (छ:) छ प्रत्यय होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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