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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०-भक्ते साधुः-भाक्तः शालि: । भाक्तास्तण्डुलाः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तत्र) सप्तमी - समर्थ (भक्तात्) भक्त प्रातिपदिक से (साधुः ) योग्य अर्थ में (णः) ण प्रत्यय होता है।
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उदा०-भक्त=भात में जो साधु-योग्य है वह भाक्त शालि (तुष सहित चावल ) । भक्त = भात के जो योग्य हैं वे भाक्त तण्डुल (तुष रहित चावल ) ।
सिद्धि - भाक्त: । भक्त+ङि+ण । भाक्त्+अ । भाक्त+सु। भक्तः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'भक्त' शब्द से साधु अर्थ में इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
ण्यः
(४) परिषदो ण्यः । १०१ ।
प०वि०-परिषद: ५ ।१ ण्यः १ । १ अनु० - तत्र, साधुरिति चानुवर्तते । अन्वयः- तत्र परिषदः साधुर्ण्यः ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीसमर्थात् परिषद्-शब्दात् प्रातिपदिकात् साधुरित्यस्मिन्नर्थे यः प्रत्ययो भवति ।
उदा०-परिषदि साधु::-पारिषद्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ - (तत्र) सप्तमी - समर्थ ( परिषदः) परिषद् प्रातिपदिक से (साधुः) निपुण / योग्य अर्थ में (ण्यः) ण्य प्रत्यय होता है ।
उदा०
- परिषद् = विद्वत्सभा में जो साधु = निपुण / योग्य है वह पारिषद्य । सिद्धि-पारिषद्यः । परिषद् + ङि+ण्य । पारिषद् +य । पारिषद्य+सु । पारिषद्यः । यहां सप्तमी - समर्थ 'परिषद्' शब्द से साधु अर्थ में इस सूत्र से 'ण्य' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है।
विशेष: प्राचीन चरण (वैदिक विद्यापीठ) के अन्तर्गत एक प्रकार की विद्वत्सभा का नाम 'परिषद्' है, जो उच्चारण और व्याकरण - सम्बन्धी नियमों का विचार करती थी । परिषद् शब्द गोष्ठी (समाज) और राजा की मन्त्रि-परिषद् का भी वाचक है ।
ठक्
(५) कथादिभ्यष्ठक् । १०२ ।
प०वि०-कथा-आदिभ्यः ५।३ ठक् १।१।
स०-कथा आदिर्येषां ते कथादय:, तेभ्यः - कथादिभ्यः ( बहुव्रीहि: ) ।
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