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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-पाक्षिकः । पक्षिन्+शस्+ठक् । पाश्+इक । पाक्षिक+सु । पाक्षिकः ।
यहां द्वितीया-समर्थ पक्षिन्' के शब्द से हन्ति-अर्थ में यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ' के स्थान में 'इक्' आदेश, अंग के आदिवृद्धि और नस्तद्धिते (६।४।१४४) से अंग के टि-भग (इन्) का लोप होता है। ऐसे ही-मैनिक: आदि।
तिष्ठति-हन्ति-अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितम् (ठक)
(१) परिपन्थं च तिष्ठति।३६ । प०वि०-परिपन्थम् २ १ च अव्ययपदम्, तिष्ठति क्रियापदम् । अनु०-तत्, ठक्, हन्ति इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत् परिपन्थं तिष्ठति हन्ति च ठक् ।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थात् परिपन्थ-शब्दात् प्रातिपदिकात् तिष्ठति हन्तीति चार्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-परिपन्थं तिष्ठति-पारपन्थिकश्चौरः। परिपन्थं हन्तिपारिपन्थिकश्चौरः।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (परिपन्थम्) परिपन्थ शब्द से (तिष्ठति) ठहरता है (च) और (हन्ति) मारता है अर्थ में (ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-जो परिपन्थ (मार्ग को घेरकर) बैठा रहता है वह-पारिपन्थिक चौर। जो परिपन्थ (मार्ग पर चलनेवाले को) मारता है वह-पारिपन्थिक चौर।
सिद्धि-पारिपन्थिकः । परिपन्थ+अम्+ठक् । पारिपन्थ्+इक। पारिपन्थिक+सु। पारिपन्थिकः।
यहां द्वितीया-समर्थ 'परिपन्थ' शब्द से तिष्ठति और हन्ति अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: (१) परिपन्थ' शब्द में 'अपपरिबहिरञ्चव: पञ्चम्या' (२।१।१२) से अव्ययीभाव समास है-पथ: परि इति-परिपन्थम् । 'अव्ययीभावश्च' (१।१।४१) से 'परिपन्थ' शब्द अव्यय है। यहां परि' शब्द 'अपपरी वर्जने (१।४।८८) से वर्जनार्थक है। जो पन्था (मार्ग) को छोड़कर बैठा रहता है वह-'पारिपन्थिक' कहाता है।
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