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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
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समासान्तो भवति। अतो वाक्यमपि अकारान्तमेव भवति - दशैकादशान्
प्रयच्छति ।
उदा०- ( कुसीदम्) कुसीदं प्रयच्छति - कुसीदिकः । स्त्री चेत्कुसीदिकी । (दशैकादशा:) दशैकादशान् प्रयच्छति-दशैकादशिकः । स्त्री चेत् - दशैकादशिकी |
आर्यभाषाः अर्थ- (तत्) द्वितीया-समर्थ (कुसीद - दशैकादशात्) कुसीद और दशैकादश प्रातिपदिकों से (प्रयच्छति) प्रदान करता है' अर्थ में यथासंख्य (ष्ठन् -ष्ठचौ) ष्ठन् और ष्ठच् प्रत्यय होते हैं। (गर्ह्यम्) जो द्वितीया - समर्थ है यदि वह गर्ह्य = निन्दनीय हो । कुसीद का अर्थ वृद्धि है । कुसीद के लिये जो द्रव्य है, उसे कुसीद कहते हैं। यह तदर्थ में तत् शब्द का प्रयोग है। एकादश ( ११ ) के लिये जो दश (१०) मुद्रायें हैं उन्हें 'दशैकादश' कहते हैं ।
उदा०- - (कुसीद) कुसीद = व्याज के लिये जो धन देता है वह - कुसीदिक ( सूदखोर ) । यदि स्त्री हो तो - कुसीदिकी। (दशैकादश) जो एकादश मुद्राओं के लिये दश मुद्रायें देता है वह - दशैकादशिक । यदि स्त्री हो तो - दशैकादशिकी ।
सिद्धि - (१) कुसीदिक: । कुसीद+अम्+ष्ठन् । कुसीद + इक । कुसीदिक+सु । कुसीदिकः ।
यहां द्वितीया-समर्थ 'कुसीद' शब्द से प्रयच्छति अर्थ में इस सूत्र से 'ष्ठन्' प्रत्यय है । पूर्ववत् '' के स्थान में 'इक्' आदेश और अंग के अकार का लोप होता है । प्रत्यय के षित होने से 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१ ) से स्त्रीत्व - विवक्षा में ङीष् प्रत्यय होता है - कुसीदिकी । प्रत्यय के नित् होने से 'ज्नित्यादिर्नित्यम्' ( ६ |१| ९४ ) से आद्युदात्त स्वर होता है- कुर्सीदक: ।
(२) दशैकादशिक: । यहां द्वितीया - समर्थ 'दशैकादश' शब्द से प्रयच्छति अर्थ में 'ष्ठच्' प्रत्यय है । स्त्रीत्व-विवक्षा में पूर्ववत् ङीष् प्रत्यय होता है- दशैकादशिकी । प्रत्यय के चित् होने से 'चित:' ( ६ । १ । १६० ) से अन्तोदात्त स्वर होता है- दशैकादशिकः ।
विशेषः कुसीद ( व्याज) पर धन देना तथा ११) रु० के लिये १०) रु० देना पाणिनि के काल में गर्ह्य - निन्दनीय था ।
उञ्छति- अर्थप्रत्ययविधिः
यथाविहितम् (ठक) —-
(१) उञ्छति । ३२ ।
प०वि० उञ्छति क्रियापदम् । अनु० - तत्, ठक् इति चानुवर्तते ।
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