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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः सिद्धि-जिहामूलीयम् । जिहामूल+डि+छ। जिह्वामूल्+ईय। जिह्वामूलीय+सु। जिह्वामूलीयम्।
यहां सप्तमी-समर्थ जिहामूल' शब्द से भव अर्थ में इस सूत्र से छ' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छ' के स्थान में 'ईय्' आदेश होता है। कुप्वोःकपौ च (७।३।३७) से क, ख वर्ण परे होने पर विसर्जनीय के स्थान में जिह्वामूलीय आदेश होता है। जैसे-देव करोति। देव खादति। छ:
(११) वर्गान्ताच्च।६३। प०वि०-वर्ग-अन्तात् ५।१ च अव्ययपदम् । स०-वर्गोऽन्ते यस्य तद् वर्गान्तम्, तस्मात्-वर्गान्तात् (बहुव्रीहि:)। अनु०-तत्र, भव:, छ इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र वर्गान्ताच्च भवश्छः ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थाद् वर्गान्तात् प्रातिपदिकाच्च भव इत्यस्मिन्नर्थे छ: प्रत्ययो भवति।
उदा०-कवर्गे भवं कवर्गीयम् । चवर्गे भवं चवर्गीयम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (वर्गान्तात्) वर्ग अन्तवाले प्रातिपदिक से (च) भी (भव:) भव अर्थ में (छ:) छ प्रत्यय होता है।
उदा०-कवर्ग में होनेवाला-कवर्गीय। चवर्ग में होनेवाला चवर्गीय । सिद्धि-कवर्गीयम् । कवर्ग+डि+छ। कवर्ग+ईय। कवर्गीय+सु । कवर्गीयम्।
यहां सप्तमी-समर्थ, वर्गान्त कवर्ग' शब्द से भव अर्थ में इस सूत्र से 'छ' प्रत्यय है। पूर्ववत् 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश होता है। ऐसे ही-चवर्गीयम्।
विशेष: संस्कृत-भाषा की वर्णमाला में कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग ये पांच वर्ग है। इनके उपरिलिखित विधि से पांच रूप बनते हैं। यत्+खः+छ:
(१२) अशब्दे यत्खावन्यतरस्याम् ।६४। प०वि०-अशब्दे ७१ यत्-खौ १ ।२ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्।
स०-न शब्द इति अशब्द:, तस्मिन्-अशब्दे (नञ्तत्पुरुषः)। यच्च खश्च तौ यत्खौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
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