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________________ १२१ चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः (२) काणेय: । काणा+डस्+ढक्। काण्+एय। काणेय+सु । काणेयः । यहां षष्ठी-समर्थ क्षुद्रावाची काणा' शब्द से अपत्य अर्थ में विकल्प पक्ष में द्वयच:' (४।१।१२१) से ढक्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही दासी शब्द से-दासेर:, दासेय:। छण (१) पितृष्वसुश्छण् ।१३२। प०वि०-पितृष्वसु: ५ ।१ छण् १।१ । स०-पितु: स्वसा इति पितृष्वसा, तस्या:-पितृष्वसुः (षष्ठीतत्पुरुषः)। अनु०-तस्य, अपत्यम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य पितृष्वसुरपत्यं छण् । अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थात् पितृस्वसृशब्दात् प्रातिपदिकाद् अपत्यमित्यस्मिन्नर्थे छण् प्रत्ययो भवति। उदा०-पितृस्वसुरपत्यम्-पैतृष्वस्रीयः । आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (पितृष्वसुः) पितृष्वसा प्रातिपदिक से (अपत्यम्) अपत्य अर्थ में (छण्) छण् प्रत्यय होता है। उदा०-पितृस्वसुरपत्यम्-पैतृष्वस्त्रीय: । पिता की बहिन (बूआ) का बेटा-पैतृस्वस्त्रीय । सिद्धि-पैतृष्वस्त्रीय: । पितृष्वसृ+डस्+छण् । पैतृष्वसृ+ ईय। पैतृष्वस्त्रीय+सु । पैतृष्वस्त्रीयः । यहां षष्ठी-समर्थ पितृष्वसृ' शब्द से अपत्य अर्थ में इस सूत्र से छण्' प्रत्यय है। आयनेय०' (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में 'इय् आदेश होता है। 'इको यणचि (६ ॥११७५) से 'ऋ' के स्थान में यण (र्) आदेश है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से सामान्य 'अण्' प्रत्यय की प्राप्ति थी, यह उसका अपवाद है। ढक् (अन्त्यलोपः) (२) ढकि लोपः । १३३। प०वि०-ढकि ७१ लोप: १।१।। अनु०-तस्य, अपत्यम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य पितृष्वसुरपत्यम् ढकि लोपः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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