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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
विकरण प्रत्यय है। उसे 'आर्धधातुक' मानकर 'णेरनिटि' (६/४/५१) से णिच्' प्रत्यय
का लोप होता है।
(२) स्वस्तये । सु+अस्+क्तिन् । सु+अस्+ति । स्वस्ति+सु । स्वस्तिः । यहां 'सु' उपसर्गपूर्वक 'अस भुवि' (अदा०प०) धातु से 'स्त्रियां क्तिन्' (३1३1९४) से 'क्तिन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से क्तिन्' प्रत्यय के सार्वधातुक होने से 'अस्तेर्भू:' (२/४/५२) से 'अस्' के स्थान में 'भू' आदेश नहीं होता है।
(३) विशृण्विरे । वि+श्रु+लिट् । वि+श्रु+झ | वि+श्रु+श्नु+इरेच् । वि+शृ+नु+इरे। विशृण्विरे ।
यहां 'वि' उपसर्गपूर्वक 'श्रु श्रवणे' (स्वा०प०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३ । २ । ११५ ) से 'लिट्' प्रत्यय और उसके स्थान में 'झ' प्रत्यय और 'लिटस्तझयोरेशिरेच्' (३ । ४ ।८१) से उसके स्थान में 'इरेच्' आदेश होता है। इस सूत्र से उसकी सार्वधातुक संज्ञा है । अत: 'श्रुवः शृ च' (३ 1१1७४) से 'श्रु' के स्थान में 'श्रृ' आदेश और 'श्नु' विकरण प्रत्यय होता है।
(४) सुन्विरे । सु+लिट् । सु+झ सु+श्नु+इरेच् । सु+नु+इरे। सुन्विरे । यहां 'षुञ् अभिषवे' (स्वा०3० ) पूर्ववत् 'लिट्' प्रत्यय और उसके सार्वधातुक होने से 'स्वादिभ्यः पनु:' ( ३ | १/७३) से 'श्नु' विकरण प्रत्यय होता है।
(५) उपस्थेयाम | उप+स्था+लिङ् । उप+स्था+यासुट्+मस्। उप+स्था+यास्+म । उप+स्थे+या+म । उपस्थेयाम ।
यहां 'उप' उपसर्गपूर्वक 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से 'विधिनिमन्त्रण०' (३ । ३ । १६१) से 'लिङ्' प्रत्यय और उसके स्थान में 'मस्' आदेश है। 'यासुट् परस्मैपदेषु०' (३।४।१०३) से 'यासुट्' आगम है। यहां 'लिङ्' को सार्वधातुक मानकर लिङः सलोपो ऽनन्त्यस्य (७/२/७९ ) से 'यासुट् के 'स्' का लोप हो जाता है और उसे आर्धधातुक मानकर 'एर्लिङि' (६/४/६७) से 'स्था' धातु को 'ए' आदेश होता है।
विशेष- 'छन्दस्युभयथा' यह सूत्र वस्तुतः 'व्यत्ययो बहुलम्' (३।१।८५) का ही
प्रपञ्च है।
इति श्रीयुत परिव्राजकाचार्याणाम् ओमानन्दसरस्वती - स्वामिनां महाविदुषां पण्डितविश्वप्रियशास्त्रिणां च शिष्येण पण्डितसुदर्शनदेवाचार्येण विरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तश्चायं तृतीयोऽध्यायः । इति द्वितीयो भागः ।
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